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"प्रेम–तत्व-५ / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर

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कैसे इतना
उलट -पलट जाता है सब कुछ
प्रेम में
प्रेम करके जाना
कि प्रेम एक क्रांति है
एक आश्चर्य
विलीन हो जाता है अहंकार
एक पवित्र औदात्य में
शब्द अपने अर्थों का केंचुल उतर
धारण कर लेते हैं नये
अनछुए अर्थ
खुद हम हो उठते हैं इतने नए कि
मुश्किल हो जाये पहचान
अपनी ही
कैसे तमाम बड़ी -बड़ी बातें भी
बेमानी लगने लगती हैं
रूमानी बातों के आगे
यह जान सकता है
कोई
प्रेम करके ही