भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नाविक मेरे / अपर्णा भटनागर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अपर्णा भटनागर |अनुवादक= |संग्रह= }} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:57, 17 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण

ये आज है
कल थक कर बिखर गया है
जैसे थक जाती है रात
और कई आकाशगंगाएं ओढ़ कर सो जाती है
एक तकिया चाँद का सिरहाने रख
सपनों पर रखती है सिर..
और सुबह की रूई गरमाकर
बिनौलों संग उड़ जाती है दूर दिशाओं के देश में
तब अपने आज पर
हरे कदमों संग तुम चल देते हो
जहां से बहकर आती है एक नदी
उसकी लहरों पर सुबह का पुखराज जड़ जाता है पीताभ
तुम इन लहरों पर उतार देते हो कल की नाव
आकाश के पंख काट देते हैं समय का पानी
और तुम आने वाले तूफ़ान पर खोल देते हो अपने पाल
मैं देखती हूँ
तुम्हारी नाव बो आई है
क्षितिज के कमल, सफ़ेद - लाल
और तुम्हारे खुले हाथों ने पकड़ लिया है हवा को
अपने रुख के अनुकूल
कल के किनारे पर जा पहुंची है
तुम्हारी नाव ..
सखा, इस किनारे पर स्वागत हेतु
मैंने सजा रखी हैं सीपियों की बलुआ रंगोलियाँ ..
बचपन के घरौंदे
जिन्हें पैरों पर लादकर बैठी रहती थी विजित भाव से
तुम नाविक हो ..
लौट जाओगे जहां से फूटेगा प्रकाश
मैं रेत में पैर डाल
सजाऊँगी फिर एक किनारा
जहां तुम्हारी नौका लग सके ...अविराम!