भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जाना और आना / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:18, 21 अप्रैल 2014 के समय का अवतरण
धूल धुएं शोर से घुटे और झुके हुए बेगुनाह पेड़ थे सजा काटते
हर जगह की तरह
लोग थे निशाना बींधने छोड़े गए तीर की तरह
उन्हें और कुछ दिखता नहीं था
सड़क चल रही थी
वहां और मानो कुछ नहीं था
बच रहे किनारे पर
जैसे बच रही पृथ्वी पर
चल रहे थे चींटियों की तरह
हम तुम
जैसे सदियों से चलते चले आते हुए
अगल बगल जाना वह कुछ तो था
खुद के पास खुद के होने का एहसास था
मैं दौड़ा वहां जीवन पाने इच्छा से
तुमने धड़कते दिल को थामा अपनी सांसे रोककर
पता नहीं कब तक
फिर हम तुम
लौटे उसी सड़क पर से झूमते हाथियों की तरह
जैसे किसी दूसरे लोक से किसी दूसरे आलोक में
यह आना तो सचमुच खासमखास था.