भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;"> | <div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;"> | ||
− | + | विद्वान का ढेला</div> | |
<div style="text-align: center;"> | <div style="text-align: center;"> | ||
− | रचनाकार: [[ | + | रचनाकार: [[ताद्युश रोज़ेविच]] |
</div> | </div> | ||
<div style="border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; line-height: 0; margin: 0 auto; min-height: 590px; padding: 20px 20px 20px 20px; white-space: pre;"><div style="float:left; padding:0 25px 0 0">[[चित्र:Kk-poem-border-1.png|link=]]</div> | <div style="border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; line-height: 0; margin: 0 auto; min-height: 590px; padding: 20px 20px 20px 20px; white-space: pre;"><div style="float:left; padding:0 25px 0 0">[[चित्र:Kk-poem-border-1.png|link=]]</div> | ||
− | + | इस कविता को | |
− | + | सुला देना चाहिए | |
− | + | इसके पहले कि शुरू हो | |
− | + | इसका विद्वान होना | |
+ | इसके पहले कि | ||
+ | यह कविता शुरू हो | ||
− | + | इसके पहले कि | |
− | + | यह तारीफ़ें बटोरे | |
+ | किसी विस्मरण के पल में | ||
+ | यह जीवित हो | ||
− | + | इसके पहले कि | |
− | + | अपनी ओर आते शब्दों और | |
+ | आँखों की यह अभ्यस्त हो | ||
− | + | इसके पहले कि | |
− | + | यह विद्वानों के उपदेश लेना | |
+ | शुरू करे | ||
− | (रचनाकाल : 2003) | + | गुज़रने वाले राहगीर |
+ | कतराकर गुज़र जाते हैं | ||
+ | कोई भी नहीं उठाता | ||
+ | वह विद्वान ढेला | ||
+ | |||
+ | उस ढेले के भीतर | ||
+ | एक नन्हीं-सी, | ||
+ | सफ़ेद, | ||
+ | नंगी कविता | ||
+ | जलती रहती है | ||
+ | |||
+ | राख हो जाने तक । | ||
+ | |||
+ | (रचनाकाल : 2002-2003) | ||
</div> | </div> | ||
</div></div> | </div></div> |
23:34, 4 मई 2014 का अवतरण
विद्वान का ढेला
रचनाकार: ताद्युश रोज़ेविच
इस कविता को सुला देना चाहिए
इसके पहले कि शुरू हो इसका विद्वान होना इसके पहले कि यह कविता शुरू हो
इसके पहले कि यह तारीफ़ें बटोरे किसी विस्मरण के पल में यह जीवित हो
इसके पहले कि अपनी ओर आते शब्दों और आँखों की यह अभ्यस्त हो
इसके पहले कि यह विद्वानों के उपदेश लेना शुरू करे
गुज़रने वाले राहगीर कतराकर गुज़र जाते हैं कोई भी नहीं उठाता वह विद्वान ढेला
उस ढेले के भीतर एक नन्हीं-सी, सफ़ेद, नंगी कविता जलती रहती है
राख हो जाने तक ।
(रचनाकाल : 2002-2003)