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18:50, 7 मई 2014 के समय का अवतरण
उपजायें तो क्या उपजायें
कि खेत से खलिहान होती हुई
फसल
पहुंच सके घर के बंडों तक
मंडियों में पूरे दाम तुलें
अनाज के ढेर।
उपजायें तो क्या उपजायें
कि साहूकार की तिजोरी से
निकालकर
घरवाली के हाथ थमा सके
कड़कड़ाट
नोटों की गड्डियां।
उपजायें तो क्या उपजायें
कि इस बरस बाद
कभी न लेना पड़े
साल दर साल
बैंक से नोड्यूज।
सफेद-काले खाद के लिए
घंटो पंक्तिबद्ध होकर
न करना पड़े
अपनी बारी का इंतजार।