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"होगी कोई और भी सूरत / नंद भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर

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11:08, 2 जून 2014 के समय का अवतरण

अभी अभी उठा है जो अलसवेरे
रात भर की नींद से सलामत
देख कर तसल्ली होती है उसे
कि दुनिया वैसी ही रखी है
उसकी आँख में साबुत
जहाँ छूट गई थी बाहर
पिछले मोड़ पर अखबार में!

किन्हीं बची हुई दिलचस्पियों
और ताजा खबरों की उम्मीद में
पलटते हुए सुबह का अखबार -
          या टी.वी. ऑन करते
कोई यह तो नहीं अनुमानता होगा
कि पर्दे पर उभरेगी जो सूरत –
                 पहली सुर्खी
वही बांध कर रख देगी साँसों की संगति –

फिर वही औचक,
अयाचित होनियों का सिलसिला:
सड़क के ऐन् बीचो-बीच बिखरी
अनगिनत साँसें बिलखता आसमान
हवा में बेरोक बरसता बारूदी सैलाब
सहमी बस्तियों में दूर तक दहशत –

दमकलों की घंटियों में
डूब गई चिड़ियों की चीख-पुकार –
सनसनीखेज खबरों की खोज में
भटक रहे हैं खोजी-छायाकार
दृश्‍य को और भी विद्रूप बनाती
            सुरक्षा सरगर्मियां -
औपचारिक संवेदनाओं की दुधारी मार!

हर हादसे के बाद
अरसे तक डूबा रहता हूं
इसी एक संताप में –
होगी कोई और भी सूरत
इस दी हुई दुनिया में
        दरकती दीठ से बाहर?