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"जिस शरीर का मूर्ख, कर रहा तू इतना अभिमान / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर

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(राग जंगला-ताल कहरवा)

जिस शरीर का मूर्ख, कर रहा तू इतना अभिमान।
गहरा‌ईसे उसकी दशा विचार, छोड़ अज्ञान॥
संधि सैकड़ोंसे जर्जर यह, त्रिविध व्याधिसे ग्रस्त।
पता नहीं, कब हो जायेगा देह-सूर्य यह अस्त॥
यह ‘मैं’, यह ‘मेरा’-यों जीवनभर करता बकवाद।
जिस दिन यह सब छूट जायगा, उस दिनकी कर याद॥
धोता, मलता, जिसे सजाता रहता है तू नित्य।
वह मुर्दा हो पड़ जायेगी तेरी देह अनित्य॥
जिसके बल-बूतेपर मनमें करता सदा गुमान।
भस्म, कीट या मल बन जायेगा, वह देह महान॥
विषय-मोहरत, पाप-निरत, रहता तू सदा विभोर।
हँसते तेरी वज्रमूर्खतापर यम-किंकर घोर॥
गर्व कर रहा नाम-रूपका, भूल रहा भगवान।
मिट जायेंगे ये, बिगड़ेगी तेरी सारी शान॥
अब भी चेत, मोहको तज दे, भज ले तू नँद-नन्द।
जन्म सफल हो जायेगा, पाकर विशुद्ध आनन्द॥