भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"भोग विषभरे मधुर पकवान / हनुमानप्रसाद पोद्दार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:12, 3 जून 2014 के समय का अवतरण
(राग मालकोस-तीन ताल)
भोग विषभरे मधुर पकवान।
भोग-काल महँ लगैं अमृत-सम फल में जहर समान॥
बाहर रँग-रोगन मोहन भीतर विष भर्यो महान।
चमक दमक जो देखि फ़ँसे नहिं, सो नर अति मतिमान॥
भरी गंदगी अंदर भारी, बाहर सोभा मान।
भीतर घुसत घोर दुख उपजत, समुझत नहिं अग्यान॥
समुझि भोग कौ रूप जथारथ, पाप-दुःख की खान।
भोग-राग तजि, तुरत भजहि तू हित-सुखमय भगवान॥