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06:35, 15 जून 2014 का अवतरण
0 रोती रही चिरई दो कुल्हिया में रख के दाना–पानी भूल गया मनई मुह फेर के सोने के पींजरे में रोती रही चिरई ! 1 तूने क्या दिया रूखा–सूखा जीवन संघर्ष प्रति क्षण पफटी बिवाई ख़ून रिसता गया सफ़र जारी रहा। 2 मन–माफ़िक कभी कुछ न हुआ फली न कोई दुआ पिंजरे–कै़द भीगता रहा सुआ धूप ने नहीं छुआ। 3 हिम–याता है दुर्गम ये चढ़ाई बर्फ़ में धँसी जाऊँ सूरज खोया बर्फ़ीली आँधियों में कुछ देख न पाऊँ। 4 मलाल यही अनमोल जि़न्दगी कौडि़यों मोल बिकी ‘रत्ती’ का भाग्य बैठ कर तराजू हीरा–सोना तोलती ! 5 चकोर–मन चाँद को चाह कर सदा ही छला गया प्रेम–अगन अंगार खा, झुलसा मिलन को तरसा। 6 मन मोहा था मिसरी–सी आवाज़ रूप भी सलोना था एक पत्थर दिल की जगह पे रखके , ये क्या किया ? 7 मैना यूँ बोली– सोने की सलाखों में गीत मेरे रूठे हैं मुक्ति दो मुझे पंख फड़फड़ाऊँ प्रीत का राग गाऊँ। 8 आशा के बीज रेत में बो कर मैं रोज़ सींचती रही उगा न एक समय, पानी, श्रम की बरबादी सही। 9 आँख जो खोली क्रूर साहूकारिन ‘जि़न्दगी’ यूँ थी बोली– ‘थमना नहीं क़र्ज़ अदायगी में’ उम्र तमाम हुई ! 10 गुलशन में शाखो–शजर वही बहार की मस्ती भी कसक यही– बस, एक आशियाँ शाख़ से टूट गिरा। 11 न तुम झूठे न थे हम बेवफ़ा आँधियाँ ही थीं खफ़ा गिरा के मानीं नन्हा–सा आशियाना शेष आँसू बहाना। 12 मसला गया एक पाँखुरी दिल पत्थरों में जा गिरा क्या बिसात थी ? मलीदा बन गया धूल में ही खो गया। 13 बेबस मन घायल परिन्दा–सा लहूलुहान हुआ दीवारों–क़्ैफद तड़पे, गिरे, उठे नभ खोजता रहा। 14 लूट मची थी डूबते जहाज़ में अफरा–तफरी थी सीढ़ी, रस्सियाँ हाथ लगे, ले कूदो भागो, जान बचाओ। 15 गुज़र गया सुख–दु:ख को ढोता लदा–फँदा काफ़िला शेष बचा है : रौंदी गई धरती यादों का सिलसिला। 16 तूफान घिरा : तेरे–मेरे प्यार के टूटे थे अनुबन लुप्त हो गई मधुमती भूमिका शेष वितृष्णा–छन्द। 17 साँझ झुकी है उमड़ते आ रहे उदासी के बादल आगे जो बढ़ूँ हताशा की झाडि़याँ खींच लेतीं आँचल। 18 कैसे तो रोवेंफ घिर–घिर आते हैं उदासी के बादल डुबो ख़ुद को हँसी की चाशनी में करें तुमसे छल ! 19 छँटते नहीं उदासी के बादल मन हुआ तरल आशा की धूप खिलखिला जो हँसे डगर हो सरल। 20 रास न आई जि़न्दगी की ख़ुशियाँ सदा रहीं पराई डोलती रही मन–दर्पण पर अचीन्ही परछाई। 21 सैर को चले अंजान दुनिया में कौतूहल से भरे आगे जो मिले करते यही गिले– ‘तूफ़ान बहुत हैं’। 22 अपनों ने दी सदा शिकस्त मुझे और कुरेदे घाव इठलाते थे कर–कर के छेद ‘जल्दी डूबे ये नाव’। 23 पास बुलाती आज़ादी ललचाती नई राह दिखाती मोटी सलाखें रिश्तों की जकड़े थीं ! बेडि़याँ पकड़े थीं !! 24 चाँद था पास हाथ बढ़ा पा जाती दो डग भर दूरी हथकडि़याँ जकड़े बैठीं हाथ बेड़ी बँो थे पाँव। 25 भाग का लेखा कौन बाँचै री माई वन में रोई सीता राम ने त्यागा लखन रथ हाँका निठुर बने मीता। 26 कुचले गए तो भी ख़ामोश रहे सब सहते गए क्या तो बोलते नींव के पत्थर थे कैसे ज़ुबाँ खोलते ? 27 पतझर में वन–फूल खिला था रंग–रूप भला था सही उपेक्षा चलाचली की बेला छूट गया अकेला। 28 नन्हा जीवन दाना जुटाते बीता मधु–घट भी रीता नीड़–रचना मात्र एक दुराशा सहचर : छलना ! 29 कहाँ न खोजा सात गाँव हो आई छान मारे हैं वन अब तो मिल नदिया उफनाती निगलने को आती। 30 जोगी ठाकुर ! मीरा के पाँव तुम घुँघरू बाँध गए मुड़ के देखा ? रिसते रहे छाले मीरा नाचती रही ! 31 दाग़ी जाती थी दहकती छड़ों से अनगिनत बार माँगा न पानी लिया तो हर बार लिया तुम्हारा नाम ! 32 तुम आज़ाद गगन के पंछी थे बड़ी ऊँची उड़ान मैं थी घिरी सीकचों के भीतर पंख–बँधी चिरई। 33 कुछ खिलौने उम्र छीन ले गई कुछ वक़्त ने छीने ख़ाली हाथ हूँ काश ! कोई लहर हथेली भर जाए ! -0- </poem>