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"हँसी की भूल भुलैया / राजेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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सुख के साथ<br>
 
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कोई स्वाभाविक रिश्ता नहीं है हँसी का<br>
 
कोई स्वाभाविक रिश्ता नहीं है हँसी का<br>

07:08, 19 दिसम्बर 2007 के समय का अवतरण

सुख के साथ
कोई स्वाभाविक रिश्ता नहीं है हँसी का
दुखी लोग भी हँस लेते हैं अक्सर

सुखी चेहरे
एक मुस्कराहट से आगे नहीं बढ़ते
गर्व से सनी और व्यंग्य में कसी मुस्कुराहट
उन्हे अपने सुख के लगातार दुखी होने की
याद दिलाती है

एक निरभिमान हँसी
दुखी चेहरों का श्रृंगार बनकर झलकती है
कभी-कभी दिपदिपाता है सुख

हँसी की भूलभुलैया में गुज़रता है जीवन
कभी सुखी होता, कभी दुखी होता
गुज़र जाता है।