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− | + | बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है | |
− | + | वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है | |
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− | + | वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा | |
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− | + | वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे | |
− | + | हैं उलझ गए जीने के सारे धागे | |
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− | + | यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी | |
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− | + | तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में | |
+ | यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में | ||
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+ | साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ | ||
+ | इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ | ||
+ | जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे | ||
+ | किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें | ||
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22:55, 20 जून 2014 का अवतरण
शहर में रात
रचनाकार: केदारनाथ सिंह
![Kk-poem-border-1.png](/kk/images/6/65/Kk-poem-border-1.png)
बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गाएँ
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें