भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं धूप का टुकड़ा नहीं / रजत कृष्ण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रजत कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
मैं तो धरती के प्राँगण में खुलकर खेलूँगा  
 
मैं तो धरती के प्राँगण में खुलकर खेलूँगा  
  
चौकड़ी भरूँगा हिरनी सा वन-प्रान्तर में  
+
चौकड़ी भरूँगा हिरनी-सा वन-प्रान्तर में  
 
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ  
 
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ  
 
अँधेरे को नाथकर चाँद से बातें करूँगा  
 
अँधेरे को नाथकर चाँद से बातें करूँगा  

14:45, 26 अगस्त 2014 के समय का अवतरण

मैं धूप का टुकड़ा नहीं जो
आँगन में फुदककर लौट जाऊँगा
मैं तो धरती के प्राँगण में खुलकर खेलूँगा

चौकड़ी भरूँगा हिरनी-सा वन-प्रान्तर में
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ
अँधेरे को नाथकर चाँद से बातें करूँगा

मेरी रगों में सूर्य के जाए
अन्नदाता का ख़ून है
मेरी जड़ों में गर्माहट है
महानदी की कोख की

ग्रीष्म हो बारिश हो या सर्दी
देह की ठण्डी परतें तोड़
पसीना ओगराऊँगा

मैं धूप का टुकड़ा नहीं
जो आँगन में फुदककर लौट जाऊँगा ।