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"सम्मोहित आलोक / यतीन्द्र मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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23:06, 29 अगस्त 2014 के समय का अवतरण

कविता में जहाँ शब्द रखा है
चिमटे से उठाकर वहाँ अंगारा रख दो

अर्थ के सम्मोहित आलोक में
जहाँ मर्म खुलता दिखता हो
दीवट में उसके थोड़ा तेल भर दो

कुछ पल रुककर
गौर से देखो उस तरफ़

जो झिप रहा
वह नेह भर बाती का उज़ाला है
जो चमक रहा
वह सत्य की दिशा में खुलने वाला रास्ता है.