"मालगाड़ियों का नेपथ्य / हेमन्त देवलेकर" के अवतरणों में अंतर
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त देवलेकर |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
14:17, 31 अगस्त 2014 के समय का अवतरण
रेल्वे स्टेशनों की समय सारिणी में
कहीं नहीं होतीं वे नामज़द.
प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को
उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं.
स्टेशन के बाहर खड़े
सायकल रिक्शा, ऑटो, तांगेवालों को
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनके आने या जाने से.
चाय-नमकीन की पहिएदार गुमठियाँ
कहीं कोने में उदास बैठी रह जाती हैं
वज़न बताने की मशीनों के लट्टू भी
क्या उन्हें देख धड़का करते हैं?
आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा
बुकस्टॉल वाला अचानक चौंक नहीं पड़ता
किताबों पर जमी धूल हटाने के लिये.
मालगाडियों के आने जाने के वक़्त
पूरा स्टेशन और क़रीब-क़रीब पूरा शहर
पूरी तरह याददाश्त खोए आदमी सा हो जाता है
और इस सौतेले रवैये से
घायल हुई आत्मा के बावजूद
अपनी पीड़ा को अव्यक्त रखते हुए
वे तय करती रहती हैं तमाम दूरियाँ.
भारी-भरकम माल असबाब के साथ
ढोती हैं दुनिया की ज़रूरतें
और ला-लाकर भरती हैं हमारा ख़ालीपन.
पैसेंजर ट्रेनों से पहले चल देने की
गुस्ताख़ी कभी नहीं करेंगी वे
पीढियों की दासता ने उन्हें
इतना सहनशील और ख़ामोश बना दिया है.
दो प्लेटफार्मों के बीच छूटी सुनसान पटरियों पर
अंधेरे में आकर जब चुपचाप गुज़र जाती हैं
तब उनकी ज़िंदगी
दुनिया के तमाम मज़दूरों की कहानी लगती है
एक-सी अनाम
एक-सी उपेक्षित
और एक सी इतिहास के पन्नों से
खारिज