"मौत ने दिलाई जिनकी याद / प्रियदर्शन" के अवतरणों में अंतर
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13:03, 2 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
वे स्कूलों और शरारतों के दिन थे
जब कभी हम दोस्त हुए, आने वाले कई सालों तक सड़कों पर भटकने के लिए
और एक दिन
इस तरह जुदा होने के लिए
कि फिर सीधे मौत ने ही याद दिलाया कि हम कभी दोस्त थे
जोड़ने पर निकला, गप्पू बचपन से अब तक का चौथा दोस्त है
जिसे उम्र के इस मध्याह्न में खो चुका हूं
वह अचानक नहीं गया,
मौत उसे धीरे-धीरे अपने साथ ले गई
यह सबको पता था कि नशे में गर्क़ यह ज़िंदगी
बहुत दिन नहीं संभाल पाएगी अपने क़दम
लेकिन कम लोगों ने समझा
कि नशे से ज्यादा यह ज़िंदगी की मजबूरी थी जिसमें गप्पू मौत की तरफ बढ़ता चला गया
गप्पू के जाने से ही याद आई भुवनीश की
मुहल्ले के नुक्कड़ पर अपने बड़े भाई की पान दुकान पर
रोज़ कुछ घंटे बैठ अपनी कत्थई उंगलियां लिए जब वह बाहर आता
और उस ऊबड़-खाबड़ मैदान की तरफ चल पड़ता जहां हम क्रिकेट के विकेट लगाया करते
तब उसके चेहरे पर पान की दुकान की जगह एक आसमान चला आता
उसकी खुशी में एक खिलखिलाहट शामिल होती
वह हमारे बीच का सबसे चंचल और हौसले वाला दोस्त साबित होता
जो रास्ते में पड़ती एक नदी से मछलियां भी पकड़ा करता था
एक दिन पता चला, उसे कई बीमारियों ने घेर लिया है
और भाई के पास उसके इलाज के पैसे नहीं हैं
लेकिन वह बेफ़िक्र था या अनजान
फिर न पान की दुकान पर बैठा न खेल के मैदान में आया
आसमान के कोने में अब भी होगी उसकी एक जगह
जिसमें शायद स्मृति और विस्मृति के बीच धुंधलाते हमारे चेहरे होंगे
कौसीन दोस्त नहीं थी
दोस्त से कुछ कम थी, कुछ ज़्यादा भी
वह दूर भी थी पास भी- उसकी आंखों में अनिश्चय के घबराए बादल दिखा करते
और उन्हीं के बीच तिरती उम्मीदों की नाव
एक बेहद गहरा डर और उससे भी गहरी ज़िद जीने की
जिसे वह इस विकट दुनिया में अपने डरे हुए चौकन्नेपन के साथ बार-बार संभव बनाती रही
और फिर वे दिन भी आए जब वह अपनी मर्ज़ी से अपनी चुनी हुई सड़कों पर चल रही थी
अपने ज़मीन आसमान ओढ़-बिछा रही थी
हालांकि यह कविता में जितना रोमानी लगता है, जिंदगी में उतना ही कठोर था
लेकिन न उसे मालूम था न हमें
कि एक दिन मौत एक सड़क पर उसे घेर लेगी
अरसे बाद एक दोस्त से मिली जानकारी ने
मुझसे छीन लिए मेरी ज़िंदगी के वे लम्हे
जो एक मुश्किल घड़ी में अपनी एक मासूम सी दोस्त के काम आने के ग़रूर के साथ
मेरे भीतर बचे हुए थे।
कई और भी हैं जो ज़िंदगी में सितारों की तरह कौंधे और बुझ गए
सबा याद आती है, चमकती आंखों वाली वह लड़की जिसने
एक छोटे से काम के लिए एक बडा सा थैंक्यू लिखा
जो हर बार अघिकार के साथ दनदनाती चली आती
और मुस्कुराती लौट जाती
हालांकि कामकाज़ी रिश्ता उससे दफ्तर का रहा लेकिन जिस दिन मौत ने ये रिश्ता तोड़ दिया
उस दिन अपने भीतर भी कुछ टूटता मैंने महसूस किया।
याद करने को और भी चेहरे हैं रिश्ते हैं नाम हैं जो अब नहीं रहे
वे भी जो दोस्त से ज्यादा रहे और दिल और जीवन के इतने क़रीब
कि उनके बारे में लिखते हुए कलम बाद में कांपेगी,
सोचते हुए देह पहले सिहरती है, आंख पहले भर आती है।
वे कथाएं मैं लगातार स्थगित करता जाऊंगा इस उम्मीद में
कि एक दिन इतना समर्थ या निष्ठुर हो पाऊंगा कि लिख सकूंगा
अपने ही मिटने-कटने और तिल-तिल मरने, फिर भी बच निकलने की वे भावुक लगने वाली दास्तानें
जिनमें जितना अधूरापन होगा, उतना ही खालीपन भी जिसे ढंकने के लिए मैं अस्तित्व और जीवन से जुड़े
बड़े दार्शनिक और वैचारिक झूठों का सहारा लूंगा।
फिलहाल यह अधूरी कविता इतना भर जानती है
कि कभी भी हममें से कोई भी कहीं से भी जा सकता है
सरकारी अस्पताल में अपनी तकलीफ़ से लड़ते भुवनीश की तरह
घर में तिल-तिल घुलते गप्पू की तरह
एक सड़क हादसे में मारी गई कौसीन की तरह
या फिर समंदर में डूब गई सबा की तरह
कोई भी अपना या पराया
जिस पर बेमुरव्वत मौत डाल देगी एक दिन परदा।
चाहूं तो कह दूं कि फिर भी वह उन्हें ख़त्म नहीं कर पाएगी
आख़िर वे मेरे भीतर ज़िंदा हैं
लेकिन सच तो यह है
कि मेरे भीतर भी वे एक दिन धुंधलाते मरते चले जाएंगे
जैसे मैं एक दिन
बरसों बाद जिसकी धुंधलाती याद किसी को तब आएगी
जब अपने बीच का कोई और जा चुका होगा।