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16:10, 2 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण

निकला नहीं था मैं पैसे कमाने
भटकता हुआ आ गया इस गली में
इस भ्रम में आया कि यहां शब्दों का मोल समझा जाता है
ये बाद में समझ पाया कि यहां तो शब्दों की पूरी दुकान लगी है।
मुझे लोगों ने हाथों-हाथ लिया
क्योंकि शब्दों के साथ खेलने का अभ्यास मेरा खरा निकला।
जिसने जैसा चाहा उससे कहीं ज़्यादा चमकता हुआ लिखा।
जितनी जल्दी चाहा, उससे जल्दी लिखकर दिया।
लेख लिखे, श्रद्धांजलियां लिखीं, कविता लिखी, कहानी लिखी,
साहित्य की बहुत सारी विधाओं में घूमता रहा
किताबें भी छपवा लीं
संकोच में पड़ा रहा, वरना दो-चार पुरस्कार भी झटक लेता।
हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में जोड़े ढेर सारे पन्ने
और हर पन्ने की पूरी क़ीमत वसूल की
लेकिन यह करते-कराते, कभी-कभी लगता है
खो बैठा उस लेखक को, जो मेरे भीतर रहता था
दुख सहता था और संजीदगी से कहता था
कभी-कभी जब उससे आंख मिल जाती है
तो अपनी ही कलई खोलती ऐसी बेतुकी कविता सामने आती है।