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प्रेम को लेकर इतनी सारी धारणाएं चल पड़ी हैं
कि यह समझना मुश्किल हो गया है कि प्रेम क्या है।
एक धारणा कहती है, सबसे करो प्रेम
दूसरी धारणा बोलती है, बस किसी एक से करो प्रेम
तीसरी धारणा मानती है, प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है
एक चौथी धारणा भी है, कि पहला प्रेम हमेशा बना रहता है
बशर्ते याद रह जाए कि कौन सा पहला था या प्रेम था।
पांचवीं धारणा है, प्रेम-व्रेम सब बकवास है, नज़रों का धोखा है।
अब वह शख्स क्या करे जिसे इतनी सारी धारणाएं मिल जाएं
और प्रेम न मिले?
या मिले तो वह प्रेम को पहचान न पाए?
या जिसे प्रेम माने, वह प्रेम जैसा हो, लेकिन प्रेम न निकले?
क्या वाकई जो प्रेम करते हैं वे प्रेम कविताएं पढ़ते हैं?
या सिर्फ प्रेम उनकी कल्पनाओं में होता है?
लेकिन कल्पनाओं में ही हो तो क्या बुरा है
आख़िर कल्पनाओं से भी तो बनती है ज़िंदगी
शायद ठोस कुछ कम होती हो, मगर सुंदर कुछ ज़्यादा होती है
और इसमें यह सुविधा होती है कि आप अपनी दुनिया को, अपने प्रेम को
मनचाहे ढंग से बार-बार रचें, सिरजें और नया कर दें।
हममें से बहुत सारे लोग जीवन भर कल्पनाओं में ही प्रेम करते रहे
और शायद खुश रहे
कि इस काल्पनिक प्रेम ने भी किया उनका जीवन समृद्ध।