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16:32, 2 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
वह एक झील थी जो आंखों में बना करती थी
इंद्रधनुष के रंग चुराकर सपने अपनी पोशाक सिला करते थे
कामनाओं के खौलते समुद्र उसके आगे मुंह छुपाते थे
एक-एक पल की चमक में न जाने कितने प्रकाश वर्षों का उजाला बसा होता था
जिस रेत पर चलते थे वह दोस्त हो जाती थी
जिस घास को मसलते थे, वह राज़दार बन जाती थी
कल्पनाएं जैसे चुकती ही नहीं थीं
सामर्थ्य जैसे संभलती ही नहीं थी
समय जैसे बीतता ही नहीं था
वह भी एक जीवन था जो हमने जिया था