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"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
 
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
 
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[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4|<< पिछला भाग]]
 
  
  
भगवान सभा को छोड़ चले, करके रण गर्जन घोर चले
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[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4|<< तृतीय सर्ग / भाग 4]] | [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6 | तृतीय सर्ग / भाग 6 >>]]
  
सामने कर्ण सकुचाया सा, आ मिला चकित भरमाया सा
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भगवान सभा को छोड़ चले,
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:करके रण गर्जन घोर चले
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सामने कर्ण सकुचाया सा,  
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:आ मिला चकित भरमाया सा
  
 
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
 
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
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रथ चला परस्पर बात चली, शम-दम की टेढी घात चली,
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रथ चला परस्पर बात चली,  
  
शीतल हो हरि ने कहा, 'हाय, अब शेष नही कोई उपाय  
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:शम-दम की टेढी घात चली,
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शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,  
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:अब शेष नही कोई उपाय  
  
 
हो विवश हमें धनु धरना है,
 
हो विवश हमें धनु धरना है,
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'मैंने कितना कुछ कहा नहीं? विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
+
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?  
  
पर, दुर्योधन मतवाला है, कुछ नहीं समझने वाला है
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:विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
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पर, दुर्योधन मतवाला है,  
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:कुछ नहीं समझने वाला है
  
 
चाहिए उसे बस रण केवल,
 
चाहिए उसे बस रण केवल,
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'हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
+
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,  
  
वह भी कौरव को भारी है, मति गई मूढ़ की मरी है
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:क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
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वह भी कौरव को भारी है,  
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:मति गई मूढ़ की मरी है
  
 
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
 
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
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'सोचो क्या दृश्य विकट होगा, रण में जब काल प्रकट होगा?
+
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,  
  
बाहर शोणित की तप्त धार, भीतर विधवाओं की पुकार
+
:रण में जब काल प्रकट होगा?
 +
 
 +
बाहर शोणित की तप्त धार,  
 +
 
 +
:भीतर विधवाओं की पुकार
  
 
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
 
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
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'चिंता है, मैं क्या और करूं? शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
+
"चिंता है, मैं क्या और करूं?  
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 +
:शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
 +
 
 +
सब राह बंद मेरे जाने,
  
सब राह बंद मेरे जाने, हाँ एक बात यदि तू माने,
+
:हाँ एक बात यदि तू माने,
  
 
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
 
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
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'पा तुझे धन्य है दुर्योधन, तू एकमात्र उसका जीवन
+
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,  
  
तेरे बल की है आस उसे, तुझसे जय का विश्वास उसे  
+
:तू एकमात्र उसका जीवन
 +
 
 +
तेरे बल की है आस उसे,  
 +
 
 +
:तुझसे जय का विश्वास उसे  
  
 
तू संग न उसका छोडेगा,
 
तू संग न उसका छोडेगा,
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क्या अघटनीय घटना कराल? तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
+
"क्या अघटनीय घटना कराल?  
  
बन सूत अनादर सहता है, कौरव के दल में रहता है,
+
:तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
 +
 
 +
बन सूत अनादर सहता है,  
 +
 
 +
:कौरव के दल में रहता है,
  
 
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
 
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
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'माँ का स्नेह पाया न कभी, सामने सत्य आया न कभी,
+
"माँ का सनेह पाया न कभी,  
  
किस्मत के फेरे में पड़ कर, पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
+
:सामने सत्य आया न कभी,
 +
 
 +
किस्मत के फेरे में पड़ कर,  
 +
 
 +
:पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
  
 
निज बंधू मानता है पर को,
 
निज बंधू मानता है पर को,
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'पर कौन दोष इसमें तेरा? अब कहा माँ इतना मेरा
+
"पर कौन दोष इसमें तेरा?  
  
चल होकर संग अभी मेरे, है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
+
:अब कहा मान इतना मेरा
 +
 
 +
चल होकर संग अभी मेरे,  
 +
 
 +
:है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
  
 
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
 
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
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'कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
+
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,  
 +
 
 +
:बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
 +
 
 +
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
  
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, तेरा अभिषेक करेंगे हम
+
:तेरा अभिषेक करेंगे हम
  
 
आरती समोद उतारेंगे,
 
आरती समोद उतारेंगे,
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'पड़-त्राण भीम पह्नावेगा, धर्माचिप चंवर दुलायेगा
+
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,  
  
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
+
:धर्माचिप चंवर डुलायेगा
 +
 
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पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,  
 +
 
 +
:सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
  
 
भोजन उत्तरा बनायेगी,
 
भोजन उत्तरा बनायेगी,
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आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! आनंद-चमत्कृत जग होगा
+
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !  
  
सब लोग तुझे पहचानेंगे, असली स्वरूप में जानेंगे
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:आनंद-चमत्कृत जग होगा
 +
 
 +
सब लोग तुझे पहचानेंगे,  
 +
 
 +
:असली स्वरूप में जानेंगे
  
 
खोयी मणि को जब पायेगी,
 
खोयी मणि को जब पायेगी,
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रण अनायास रुक जायेगा, कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
+
"रण अनायास रुक जायेगा,  
  
संसार बड़े सुख में होगा, कोई न कहीं दुःख में होगा
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:कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
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संसार बड़े सुख में होगा,  
 +
 
 +
:कोई न कहीं दुःख में होगा
  
 
सब गीत खुशी के गायेंगे,
 
सब गीत खुशी के गायेंगे,
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कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, साम्राज्य समर्पण करता हूँ
+
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,  
  
यश मुकुट मान सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे
+
:साम्राज्य समर्पण करता हूँ
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 +
यश मुकुट मान सिंहासन ले,  
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 +
:बस एक भीख मुझको दे दे
  
 
कौरव को तज रण रोक सखे,  
 
कौरव को तज रण रोक सखे,  
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सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
+
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,  
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 +
:क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
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फिर कहा "बड़ी यह माया है,  
  
फिर कहा बड़ी यह माया है, जो कुछ आपने बताया है
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:जो कुछ आपने बताया है
  
 
दिनमणि से सुनकर वही कथा
 
दिनमणि से सुनकर वही कथा
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मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ,
+
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,  
  
कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल
+
:उन्मन यह सोचा करता हूँ,
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कैसी होगी वह माँ कराल,  
 +
 
 +
:निज तन से जो शिशु को निकाल
  
 
धाराओं में धर आती है,
 
धाराओं में धर आती है,
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सेवती मास दस तक जिसको, पालती उदर में रख जिसको,
+
"सेवती मास दस तक जिसको,  
  
जीवन का अंश खिलाती है, अन्तर का रुधिर पिलाती है
+
:पालती उदर में रख जिसको,
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जीवन का अंश खिलाती है,  
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:अन्तर का रुधिर पिलाती है
  
 
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,  
 
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,  
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हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
+
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,  
  
सुनना न चाहते तनिक श्रवण, जिस माँ ने मेरा किया जनन
+
:इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
 +
 
 +
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,  
 +
 
 +
:जिस माँ ने मेरा किया जनन
  
 
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
 
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
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पत्थर समान उसका हिय था, सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
+
"पत्थर समान उसका हिय था,  
  
गोदी में आग लगा कर के, मेरा कुल - वंश छिपा कर के
+
:सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
 +
 
 +
गोदी में आग लगा कर के,  
 +
 
 +
:मेरा कुल-वंश छिपा कर के
  
 
दुश्मन का उसने काम किया,
 
दुश्मन का उसने काम किया,
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माँ का पय भी न पीया मैंने, उलटे अभिशाप लिया मैंने
+
"माँ का पय भी न पीया मैंने,  
 +
 
 +
:उलटे अभिशाप लिया मैंने
 +
 
 +
वह तो यशस्विनी बनी रही,
  
वह तो यशस्विनी बनी रही, सबकी भौ मुझ पर तनी रही
+
:सबकी भौ मुझ पर तनी रही
  
 
कन्या वह रही अपरिणीता,
 
कन्या वह रही अपरिणीता,
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मैं जाती गोत्र से हीन, दीन, राजाओं के सम्मुख मलीन,  
+
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
  
जब रोज अनादर पाता था, कह 'शूद्र' पुकारा था
+
:राजाओं के सम्मुख मलीन,  
  
पत्थर की छाती पती नही,  
+
जब रोज अनादर पाता था,
 +
 
 +
:कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
 +
 
 +
पत्थर की छाती फटी नही,  
  
 
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
 
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
  
  
मैं सूत-वंश में पलता था, अपमान अनल में जलता था,
+
"मैं सूत-वंश में पलता था,  
  
सब देख रही थी दृश्य पृथा, माँ की ममता पर हुई वृथा
+
:अपमान अनल में जलता था,
 +
 
 +
सब देख रही थी दृश्य पृथा,  
 +
 
 +
:माँ की ममता पर हुई वृथा
  
 
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
 
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
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पा पाँच तनय फूली फूली, दिन - रात  बड़े  सुख में भूली
+
"पा पाँच तनय फूली फूली,  
  
कुन्ती गौरव में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रही
+
:दिन-रात  बड़े  सुख में भूली
  
क्या हुआ की अब अकुलाती है
+
कुन्ती गौरव में चूर रही,
  
किस कारण मुझे बुलाती है
+
:मुझ पतित पुत्र से दूर रही
  
 +
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
  
क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, सुत के धन धाम गंवाने पर
+
किस कारण मुझे बुलाती है?
  
या महानाश के छाने पर, अथवा मन के घबराने पर
+
 
 +
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
 +
 
 +
:सुत के धन धाम गंवाने पर
 +
 
 +
या महानाश के छाने पर,  
 +
 
 +
:अथवा मन के घबराने पर
  
 
नारियाँ सदय हो जाती हैं
 
नारियाँ सदय हो जाती हैं
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कुन्ती जिस भय से भरी रही, तज मुझे दूर हट खड़ी रही  
+
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,  
 +
 
 +
:तज मुझे दूर हट खड़ी रही  
 +
 
 +
वह पाप अभी भी है मुझमें,
 +
 
 +
:वह शाप अभी भी है मुझमें
 +
 
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क्या हुआ की वह डर जायेगा?
  
वह पाप अभी भी है मुझमें, वह शाप अभी भी है मुझमें
+
कुन्ती को काट न खायेगा?
  
क्या हुआ की वह डर जायेगा
 
  
कुन्ती को काट न खायेगा
+
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
  
 +
:मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
  
सहसा क्या हाल विचित्र हुआ, मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
+
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,  
  
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, मेरा सुख या पांडव की जय?
+
:मेरा सुख या पांडव की जय?
  
 
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
 
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
पंक्ति 250: पंक्ति 360:
  
  
मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, सब लोग हुए हित के कामी
+
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,  
  
पर ऐसा भी था एक समय, जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
+
:सब लोग हुए हित के कामी
 +
 
 +
पर ऐसा भी था एक समय,  
 +
 
 +
:जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
  
 
किंचित न स्नेह दर्शाता था,  
 
किंचित न स्नेह दर्शाता था,  
पंक्ति 259: पंक्ति 373:
  
  
उस समय सुअंक लगा कर के, अंचल के तले  छिपा कर के
+
"उस समय सुअंक लगा कर के,  
  
चुम्बन से कौन मुझे भर कर, ताड़ना-ताप लेती थी हर
+
:अंचल के तले  छिपा कर के
 +
 
 +
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,  
 +
 
 +
:ताड़ना-ताप लेती थी हर?
  
 
राधा को छोड़ भजूं किसको,  
 
राधा को छोड़ भजूं किसको,  
  
जननी है वही, तजूं किसको
+
जननी है वही, तजूं किसको?
  
  
हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, सच है की झूठ मन में गुनिये
+
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,  
  
धूलों में मैं था पडा हुआ, किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
+
:सच है की झूठ मन में गुनिये
 +
 
 +
धूलों में मैं था पडा हुआ,  
 +
 
 +
:किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
  
 
किसने मुझको सम्मान दिया,
 
किसने मुझको सम्मान दिया,
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अपना विकास अवरुद्ध देख, सारे समाज को क्रुद्ध देख
+
"अपना विकास अवरुद्ध देख,  
  
जब भीतर टूट चुका था मन, आ गया अचानक दुर्योधन
+
:सारे समाज को क्रुद्ध देख
 +
 
 +
भीतर जब टूट चुका था मन,  
 +
 
 +
:आ गया अचानक दुर्योधन
  
 
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,  
 
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,  
पंक्ति 286: पंक्ति 412:
  
  
कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया
+
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,  
  
पर कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन
+
:राधा ने माँ का कर्म किया
 +
 
 +
पर कहते जिसे असल जीवन,  
 +
 
 +
:देने आया वह दुर्योधन
  
 
वह नहीं भिन्न माता से है
 
वह नहीं भिन्न माता से है
पंक्ति 295: पंक्ति 425:
  
  
राजा रंक से बना कर के, यश, मान, मुकुट पहना कर के
+
"राजा रंक से बना कर के,  
 +
 
 +
:यश, मान, मुकुट पहना कर के
 +
 
 +
बांहों में मुझे उठा कर के,
  
बांहों में मुझे उठा कर के, सामने जगत के ला करके
+
:सामने जगत के ला करके
  
 
करतब क्या क्या न किया उसने
 
करतब क्या क्या न किया उसने
पंक्ति 304: पंक्ति 438:
  
  
है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, जानते सत्य यह सूर्य-सोम
+
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,  
  
तन मन धन दुर्योधन का है, यह जीवन दुर्योधन का है
+
:जानते सत्य यह सूर्य-सोम
 +
 
 +
तन मन धन दुर्योधन का है,  
 +
 
 +
:यह जीवन दुर्योधन का है
  
 
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,  
 
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,  
पंक्ति 313: पंक्ति 451:
  
  
सच है मेरी है आस उसे, मुझ पर अटूट विश्वास उसे
+
"सच है मेरी है आस उसे,  
  
हाँ सच है मेरे ही बल पर, ठाना है उसने महासमर
+
:मुझ पर अटूट विश्वास उसे
 +
 
 +
हाँ सच है मेरे ही बल पर,  
 +
 
 +
:ठाना है उसने महासमर
  
 
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
 
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
पंक्ति 322: पंक्ति 464:
  
  
रह साथ सदा खेला खाया, सौभाग्य-सुयश उससे पाया
+
"रह साथ सदा खेला खाया,  
  
अब जब विपत्ति आने को है, घनघोर प्रलय छाने को है
+
:सौभाग्य-सुयश उससे पाया
 +
 
 +
अब जब विपत्ति आने को है,  
 +
 
 +
:घनघोर प्रलय छाने को है
  
 
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
 
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
पंक्ति 331: पंक्ति 477:
  
  
मैं भी कुन्ती का एक तनय, जिसको होगा इसका प्रत्यय
+
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,  
  
संसार मुझे धिक्कारेगा, मन में वह यही विचारेगा
+
:जिसको होगा इसका प्रत्यय
 +
 
 +
संसार मुझे धिक्कारेगा,  
 +
 
 +
:मन में वह यही विचारेगा
  
 
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,  
 
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,  
पंक्ति 340: पंक्ति 490:
  
  
मैं ही न सहूंगा विषम डंक, अर्जुन पर भी होगा कलंक
+
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,  
 +
 
 +
:अर्जुन पर भी होगा कलंक
 +
 
 +
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
  
सब लोग कहेंगे डर कर ही, अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
+
:अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
  
 
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
 
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
पंक्ति 349: पंक्ति 503:
  
  
कोई भी कहीं न चूकेगा, सारा जग मुझ पर थूकेगा
+
"कोई भी कहीं न चूकेगा,  
  
तप त्याग शील, जप योग दान, मेरे होंगे मिट्टी समान
+
:सारा जग मुझ पर थूकेगा
 +
 
 +
तप त्याग शील, जप योग दान,  
 +
 
 +
:मेरे होंगे मिट्टी समान
  
 
लोभी लालची कहाऊँगा
 
लोभी लालची कहाऊँगा
पंक्ति 358: पंक्ति 516:
  
  
जो आज आप कह रहे आर्य, कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
+
"जो आज आप कह रहे आर्य,  
  
सुन वही हुए लज्जित होते, हम क्यों रण को सज्जित होते
+
:कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
 +
 
 +
सुन वही हुए लज्जित होते,  
 +
 
 +
:हम क्यों रण को सज्जित होते
  
 
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,  
 
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,  
पंक्ति 367: पंक्ति 529:
  
  
लेकिन नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नहीं किस ओर चली
+
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,  
  
यह बीच नदी की धारा है, सूझता न कूल-किनारा है
+
:कुछ पता नहीं किस ओर चली
 +
 
 +
यह बीच नदी की धारा है,  
 +
 
 +
:सूझता न कूल-किनारा है
  
 
ले लील भले यह धार मुझे,  
 
ले लील भले यह धार मुझे,  
पंक्ति 376: पंक्ति 542:
  
  
धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
+
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,  
  
कुल की पोशाक पहन कर के, सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
+
:भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
 +
 
 +
कुल की पोशाक पहन कर के,  
 +
 
 +
:सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
  
 
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
 
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
पंक्ति 386: पंक्ति 556:
  
  
सिर पर कुलीनता का टीका, भीतर जीवन का रस फीका
+
"सिर पर कुलीनता का टीका,  
  
अपना न नाम जो ले सकते, परिचय न तेज से दे सकते
+
:भीतर जीवन का रस फीका
 +
 
 +
अपना न नाम जो ले सकते,  
 +
 
 +
:परिचय न तेज से दे सकते
  
 
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
 
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
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कुल को खाते औ' खोते हैं
 
कुल को खाते औ' खोते हैं
  
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11:49, 22 अगस्त 2008 का अवतरण


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भगवान सभा को छोड़ चले,

करके रण गर्जन घोर चले

सामने कर्ण सकुचाया सा,

आ मिला चकित भरमाया सा

हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,

ले चढ़े उसे अपने रथ पर


रथ चला परस्पर बात चली,

शम-दम की टेढी घात चली,

शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,

अब शेष नही कोई उपाय

हो विवश हमें धनु धरना है,

क्षत्रिय समूह को मरना है


"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?

विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?

पर, दुर्योधन मतवाला है,

कुछ नहीं समझने वाला है

चाहिए उसे बस रण केवल,

सारी धरती कि मरण केवल


"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,

क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?

वह भी कौरव को भारी है,

मति गई मूढ़ की मरी है

दुर्योधन को बोधूं कैसे?

इस रण को अवरोधूं कैसे?


"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,

रण में जब काल प्रकट होगा?

बाहर शोणित की तप्त धार,

भीतर विधवाओं की पुकार

निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,

बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे


"चिंता है, मैं क्या और करूं?

शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?

सब राह बंद मेरे जाने,

हाँ एक बात यदि तू माने,

तो शान्ति नहीं जल सकती है,

समराग्नि अभी तल सकती है


"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,

तू एकमात्र उसका जीवन

तेरे बल की है आस उसे,

तुझसे जय का विश्वास उसे

तू संग न उसका छोडेगा,

वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?


"क्या अघटनीय घटना कराल?

तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,

बन सूत अनादर सहता है,

कौरव के दल में रहता है,

शर-चाप उठाये आठ प्रहार,

पांडव से लड़ने हो तत्पर


"माँ का सनेह पाया न कभी,

सामने सत्य आया न कभी,

किस्मत के फेरे में पड़ कर,

पा प्रेम बसा दुश्मन के घर

निज बंधू मानता है पर को,

कहता है शत्रु सहोदर को


"पर कौन दोष इसमें तेरा?

अब कहा मान इतना मेरा

चल होकर संग अभी मेरे,

है जहाँ पाँच भ्राता तेरे

बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,

हम मिलकर मोद मनाएंगे


"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,

बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ

मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,

तेरा अभिषेक करेंगे हम

आरती समोद उतारेंगे,

सब मिलकर पाँव पखारेंगे


"पद-त्राण भीम पहनायेगा,

धर्माचिप चंवर डुलायेगा

पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,

सहदेव-नकुल अनुचर होंगे

भोजन उत्तरा बनायेगी,

पांचाली पान खिलायेगी


"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !

आनंद-चमत्कृत जग होगा

सब लोग तुझे पहचानेंगे,

असली स्वरूप में जानेंगे

खोयी मणि को जब पायेगी,

कुन्ती फूली न समायेगी


"रण अनायास रुक जायेगा,

कुरुराज स्वयं झुक जायेगा

संसार बड़े सुख में होगा,

कोई न कहीं दुःख में होगा

सब गीत खुशी के गायेंगे,

तेरा सौभाग्य मनाएंगे


"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,

साम्राज्य समर्पण करता हूँ

यश मुकुट मान सिंहासन ले,

बस एक भीख मुझको दे दे

कौरव को तज रण रोक सखे,

भू का हर भावी शोक सखे


सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,

क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,

फिर कहा "बड़ी यह माया है,

जो कुछ आपने बताया है

दिनमणि से सुनकर वही कथा

मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा


"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,

उन्मन यह सोचा करता हूँ,

कैसी होगी वह माँ कराल,

निज तन से जो शिशु को निकाल

धाराओं में धर आती है,

अथवा जीवित दफनाती है?


"सेवती मास दस तक जिसको,

पालती उदर में रख जिसको,

जीवन का अंश खिलाती है,

अन्तर का रुधिर पिलाती है

आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,

नागिन होगी वह नारि नहीं


"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,

इस पर न अधिक कुछ भी कहिये

सुनना न चाहते तनिक श्रवण,

जिस माँ ने मेरा किया जनन

वह नहीं नारि कुल्पाली थी,

सर्पिणी परम विकराली थी


"पत्थर समान उसका हिय था,

सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था

गोदी में आग लगा कर के,

मेरा कुल-वंश छिपा कर के

दुश्मन का उसने काम किया,

माताओं को बदनाम किया


"माँ का पय भी न पीया मैंने,

उलटे अभिशाप लिया मैंने

वह तो यशस्विनी बनी रही,

सबकी भौ मुझ पर तनी रही

कन्या वह रही अपरिणीता,

जो कुछ बीता, मुझ पर बीता


"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,

राजाओं के सम्मुख मलीन,

जब रोज अनादर पाता था,

कह 'शूद्र' पुकारा जाता था

पत्थर की छाती फटी नही,

कुन्ती तब भी तो कटी नहीं


"मैं सूत-वंश में पलता था,

अपमान अनल में जलता था,

सब देख रही थी दृश्य पृथा,

माँ की ममता पर हुई वृथा

छिप कर भी तो सुधि ले न सकी

छाया अंचल की दे न सकी


"पा पाँच तनय फूली फूली,

दिन-रात बड़े सुख में भूली

कुन्ती गौरव में चूर रही,

मुझ पतित पुत्र से दूर रही

क्या हुआ की अब अकुलाती है?

किस कारण मुझे बुलाती है?


"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,

सुत के धन धाम गंवाने पर

या महानाश के छाने पर,

अथवा मन के घबराने पर

नारियाँ सदय हो जाती हैं

बिछुडोँ को गले लगाती है?


"कुन्ती जिस भय से भरी रही,

तज मुझे दूर हट खड़ी रही

वह पाप अभी भी है मुझमें,

वह शाप अभी भी है मुझमें

क्या हुआ की वह डर जायेगा?

कुन्ती को काट न खायेगा?


"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,

मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?

कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,

मेरा सुख या पांडव की जय?

यह अभिनन्दन नूतन क्या है?

केशव! यह परिवर्तन क्या है?


"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,

सब लोग हुए हित के कामी

पर ऐसा भी था एक समय,

जब यह समाज निष्ठुर निर्दय

किंचित न स्नेह दर्शाता था,

विष-व्यंग सदा बरसाता था


"उस समय सुअंक लगा कर के,

अंचल के तले छिपा कर के

चुम्बन से कौन मुझे भर कर,

ताड़ना-ताप लेती थी हर?

राधा को छोड़ भजूं किसको,

जननी है वही, तजूं किसको?


"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,

सच है की झूठ मन में गुनिये

धूलों में मैं था पडा हुआ,

किसका सनेह पा बड़ा हुआ?

किसने मुझको सम्मान दिया,

नृपता दे महिमावान किया?


"अपना विकास अवरुद्ध देख,

सारे समाज को क्रुद्ध देख

भीतर जब टूट चुका था मन,

आ गया अचानक दुर्योधन

निश्छल पवित्र अनुराग लिए,

मेरा समस्त सौभाग्य लिए


"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,

राधा ने माँ का कर्म किया

पर कहते जिसे असल जीवन,

देने आया वह दुर्योधन

वह नहीं भिन्न माता से है

बढ़ कर सोदर भ्राता से है


"राजा रंक से बना कर के,

यश, मान, मुकुट पहना कर के

बांहों में मुझे उठा कर के,

सामने जगत के ला करके

करतब क्या क्या न किया उसने

मुझको नव-जन्म दिया उसने


"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,

जानते सत्य यह सूर्य-सोम

तन मन धन दुर्योधन का है,

यह जीवन दुर्योधन का है

सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,

केशव ! मैं उसे न छोडूंगा


"सच है मेरी है आस उसे,

मुझ पर अटूट विश्वास उसे

हाँ सच है मेरे ही बल पर,

ठाना है उसने महासमर

पर मैं कैसा पापी हूँगा?

दुर्योधन को धोखा दूँगा?


"रह साथ सदा खेला खाया,

सौभाग्य-सुयश उससे पाया

अब जब विपत्ति आने को है,

घनघोर प्रलय छाने को है

तज उसे भाग यदि जाऊंगा

कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा


"कुन्ती का मैं भी एक तनय,

जिसको होगा इसका प्रत्यय

संसार मुझे धिक्कारेगा,

मन में वह यही विचारेगा

फिर गया तुरत जब राज्य मिला,

यह कर्ण बड़ा पापी निकला


"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,

अर्जुन पर भी होगा कलंक

सब लोग कहेंगे डर कर ही,

अर्जुन ने अद्भुत नीति गही

चल चाल कर्ण को फोड़ लिया

सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया


"कोई भी कहीं न चूकेगा,

सारा जग मुझ पर थूकेगा

तप त्याग शील, जप योग दान,

मेरे होंगे मिट्टी समान

लोभी लालची कहाऊँगा

किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?


"जो आज आप कह रहे आर्य,

कुन्ती के मुख से कृपाचार्य

सुन वही हुए लज्जित होते,

हम क्यों रण को सज्जित होते

मिलता न कर्ण दुर्योधन को,

पांडव न कभी जाते वन को


"लेकिन नौका तट छोड़ चली,

कुछ पता नहीं किस ओर चली

यह बीच नदी की धारा है,

सूझता न कूल-किनारा है

ले लील भले यह धार मुझे,

लौटना नहीं स्वीकार मुझे


"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,

भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?

कुल की पोशाक पहन कर के,

सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?

इस झूठ-मूठ में रस क्या है?

केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?


"सिर पर कुलीनता का टीका,

भीतर जीवन का रस फीका

अपना न नाम जो ले सकते,

परिचय न तेज से दे सकते

ऐसे भी कुछ नर होते हैं

कुल को खाते औ' खोते हैं


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