भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सॉनेट (गर्व बहुत था...) / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) (नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:13, 29 सितम्बर 2014 का अवतरण
गर्व बहुत था मुझे, कि हूं मैं भी संन्यासी।
मन मेरा दृढ है, अडिग है और रहेगा
अगो भी, तब तक, जब तक रवि शशि तारक हैं
टिके गगन में , डिगा नहीं सकता कोई भी
मन मेरा। पर पहली ही लहर तुम्हारे
छवि की छलकी, वहम बह गए, सारे के सारे।
यह लगा कि वह तू ही है, बरसों से जिसको
ढूंढ ढूंढ कर हार गया था अन्तेवासी।
चलो हुआ यह अच्छा, भरम मिटा तो मेरा।
चलो कि एक दिन अपने इस अडियल अहम को
आहत होना था, सो यह भी आज हो गया।
कितनी सुंदर घडी सलोनी थी उस दिन वह
जब कि टूटा, टूट टूटकर हुआ था तेरा।
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा।
1988