"चोरी / मुकुल दाहाल" के अवतरणों में अंतर
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23:05, 25 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण
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तब मैं खासा जवान था जब बनाया था मैंने अपना घर
एक छोटी-सी कुटी आह्लाद की
खड़ी थी मज़बूत घर के सामने जो घर था मेरे पिता का
रोज़ गिरती थी उस ऊँचे मकान की छाया
आती थी मुझ तक
और रौंद देती थी मेरे छोटे वज़ूद को
रात मैं करता था छेद अपनी ही छत में
निकल पड़ता था चोरी से
चाँद के उजास का कम्बल ओढ़े
पुकारता था बारिशों को भीग जाने के लिए बौछार में
नहीं जानता था मैं
क्यों हो जाते थे पिता इस पर यूँ उदास
छत के उन छिद्रों पर खिन्न
बरबस क्यों रोक लेना चाहते थे बरसात
क्यों दीवारें तान दीं थीं उन्होंने अपने जीवन के चारों ओर
जबकि मेरी झोंपड़ी की कोई हद न थी
वे कौन से ख़याल थे उनके
जिनसे चमका करते थे उनके बाल और काँपती थी उनकी मूँछ
फिर एक दिन यूँ हुआ
कि सौंप कर मुझे अपनी मूँछ और दाढ़ी
वे चल दिए लड़खड़ाते कभी न लौटने के लिए अपने घर से
अपने चेहरे पर उगी उस पुरानी घास को
रोज़ छीलता हूँ मैं
लेकिन फिर-फिर उग आती है वह
मैं नहीं जानता
कब मैं चुरा लिया गया था अपनी ही ख़ुशियों के घर से
हर आनेवाला साल मुझे धकेलता है
पर मैं पलटकर देखता हूँ प्यार से
अपनी वही झोंपड़ी .
वहीँ खड़ी है अब भी चुपचाप
वहीँ, पिता के ऊँचे घर के बगल में
अब दोनों ही खाली हैं
और क़रीब आ गए हैं अधिक एक-दूजे के
पिता की बाँहें हैं मेरे कन्धों से लिपटी
और स्मृतियों की हरी दूब फ़ैल गई है ढाँपते हुए गज़ों अपना अस्तित्व
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अपर्णा मनोज