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23:07, 25 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण
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कि लाया जाना चाहिए था
अपने संग पथ पर
दिन का श्फ्फ़ाक उजाला
पकड़े हुए हाथों में हाथ
छूट गया था कहीं पीछे आकाश में
कि लाया जाना चाहिए था
वह स्वप्न जो खिलता था नींद में
धीरे से रखकर आँखों में
जो यहाँ तक नहीं ला सका साथ
कि लाया जाना चाहिए था
चेहरे पर मोम से चिपकाए होठों को
लाया जाना चाहिए था
आँखों में चमकती
भोली सी रोशनी को बचाकर
मेरी देह में था कभी बुरूँश के फूल जैसा माँस
झूम उठता था हवा के संग
छूट गया है पथ में
और मेरी त्वचा थी
एक गुलदस्ता
मुरझा चुकी है अब
आह ! कुछ शेष नहीं, निरापद
कि रह गया है पीछे वैभव का वह शालीन महल
कि आई हैं मेरे साथ
काटती सर्द हवाएँ
कि आई है मेरे साथ
जलती हुई धूप
या कि गंधाता स्याह अँधेरा
और चुभती हुई थोड़ी रौशनी
सभी आह्लाद के क्षणों से दूर
खड़ा है महज अब भुतहा किला
नितांत अकेला अपनी अनजानी असंतुलित ज़मीन पर
जिसकी रक्षा में तैनात है
हृदय की कांपती लौ
और यौवन की छूटी मृगमरीचिकाएँ ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अपर्णा मनोज