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"प्यार / विजेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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कैसे जानूँ कौन सगा है
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वो कातर पुकार तुम्हारी है-
बात-बात में चलती कैंची
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तुम्हारी.....सिर्फ तुम्हारी
टंगड़ी मार खेल खेलते
+
फड़फड़ाती
फाँस पड़ी गर्दन में खेंची।
+
वो मेरे पास आने को आतुर है।
प्यार की बात
+
उसी समय एक बया
नीरी दगा है
+
अपना घौंसला रचने को बेचैन
कहते कुछ हैं
+
दिखाई दिया -
करते दूजा
+
एक मछलाी पानी को काटती हुई
मन में छुरी दिखावें पूजा
+
उतरी गहराई में।
जो जितना भलमानुस दिखता
+
जब पत्थर कि मूर्तियों को
उसको उतना खुब ठगा है।
+
उत्सुक तर्जनी से छुआ
राम नाम की फेरूँ माला
+
तो वे बोलीं-
जग्य, कथा, तीरथ भारी
+
बे-आवाज अगम भाषा
करता फिरता बारी-बारी
+
मेरी तरफ़ बराबर घूमती रहीं
बैठ अँधेरे तल में छिप कर
+
उस भव्य स्थापत्य की झरन में  
करता रहता पीला काला
+
सुना अपने धुँधले अतीत का रूदन।
कौन-सा रिश्ता-कौन सा परिचय
+
ओ कवि-
आते धन का नाता सच है
+
ज़िं धड़कनों को अनसुना कर ष्
कहते हैं अमिरित है बानी
+
षब्दो को काट मत बनाओ।
टाँग उठाकर मूत रही है
+
पृभ्वी की गति से ही
नीतिशास्त्र पर-कुतिया कानी
+
पैदा हुए हैं
रूको, रूको ये देखो चक्खो
+
अनसूँघी ऋतुओ के नये अंकुर
कथन हिए का
+
झड़ते अमलतास के पीले फूल
विष में पागा।
+
तुम्हारे साथ की अरूणोदय-स्मृतियाँ
2003  
+
आज भी ताज़ा हैं-
 
+
स्पर्ष, गंध.....
 +
स्याह पत्थर के मर्म से टपकती
 +
रजत बूँदें-  
 +
काष उन्हे मटमैले कोलाहल में
 +
सुन पाता
 +
देख पाता
 +
छु पाता।
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हर बार तुम्हारी कातर पुकार
 +
टकराती है नुकीले पत्थरों से
 +
मुझे वो आँख दिखाई दे रही है
 +
काली-सफ़ेद पुतली भी
 +
पुतली में चमकता काला तिल भी
 +
नाग चंपा की बिखरती गंध को देकर
 +
झड़ जाते हैं फूल
 +
वैसा मेरा जीवन कहाँ!
 +
रात कोल्तार-सी गाढ़ी हैं
 +
बिल्कुल अकेला हूँ
 +
ओ कसकते दर्द
 +
तू चुप जा
 +
मत रो-
 +
देख उधर काले तवे पर
 +
थके श्रमिक की अधसिकी रोटो।
 +
चट्टानों में बहुत आगे तक
 +
जाने के लिए ही
 +
मैंने सिंहावलोकन षैली अपनाई है।
 +
इस घुटते धुएँ में
 +
कैसे देख पाओगी
 +
चैत में पीपल के झरे पते
 +
नंगी होती टहनियाँ
 +
उभरी पसलियों की तरह
 +
करील की फूटती पहली सुर्ख लौ
 +
जनपद की खुली आँख है
 +
कैसे-कैसे रंग हैं जीवन के
 +
जिन्हंे चित्र नहीं कह पाते-
 +
अनुपम को जानने के लिए
 +
कहाँ है तुम्हारी उपमाएँ
 +
रूपक और षब्द
 +
जब वो होगा ग्रेनाइट पर कालांकित
 +
तभी मानूँगा
 +
प्यार जीवन की कसौटी है।
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                  2003
 
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09:33, 11 जनवरी 2015 के समय का अवतरण

वो कातर पुकार तुम्हारी है-
तुम्हारी.....सिर्फ तुम्हारी
फड़फड़ाती
वो मेरे पास आने को आतुर है।
उसी समय एक बया
अपना घौंसला रचने को बेचैन
दिखाई दिया -
एक मछलाी पानी को काटती हुई
उतरी गहराई में।
जब पत्थर कि मूर्तियों को
उत्सुक तर्जनी से छुआ
तो वे बोलीं-
बे-आवाज अगम भाषा
मेरी तरफ़ बराबर घूमती रहीं
उस भव्य स्थापत्य की झरन में
सुना अपने धुँधले अतीत का रूदन।
ओ कवि-
ज़िं धड़कनों को अनसुना कर ष्
षब्दो को काट मत बनाओ।
पृभ्वी की गति से ही
पैदा हुए हैं
अनसूँघी ऋतुओ के नये अंकुर
झड़ते अमलतास के पीले फूल
तुम्हारे साथ की अरूणोदय-स्मृतियाँ
आज भी ताज़ा हैं-
स्पर्ष, गंध.....
स्याह पत्थर के मर्म से टपकती
रजत बूँदें-
काष उन्हे मटमैले कोलाहल में
सुन पाता
देख पाता
छु पाता।
हर बार तुम्हारी कातर पुकार
टकराती है नुकीले पत्थरों से
मुझे वो आँख दिखाई दे रही है
काली-सफ़ेद पुतली भी
पुतली में चमकता काला तिल भी
नाग चंपा की बिखरती गंध को देकर
झड़ जाते हैं फूल
वैसा मेरा जीवन कहाँ!
रात कोल्तार-सी गाढ़ी हैं
बिल्कुल अकेला हूँ
ओ कसकते दर्द
तू चुप जा
मत रो-
देख उधर काले तवे पर
थके श्रमिक की अधसिकी रोटो।
चट्टानों में बहुत आगे तक
जाने के लिए ही
मैंने सिंहावलोकन षैली अपनाई है।
इस घुटते धुएँ में
कैसे देख पाओगी
चैत में पीपल के झरे पते
नंगी होती टहनियाँ
उभरी पसलियों की तरह
करील की फूटती पहली सुर्ख लौ
जनपद की खुली आँख है
कैसे-कैसे रंग हैं जीवन के
जिन्हंे चित्र नहीं कह पाते-
अनुपम को जानने के लिए
कहाँ है तुम्हारी उपमाएँ
रूपक और षब्द
जब वो होगा ग्रेनाइट पर कालांकित
तभी मानूँगा
प्यार जीवन की कसौटी है।
                  2003