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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
|संग्रह=सीपी-रचित रेत / गुलाब खंडेलवाल
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अर्धनग्न तनु, मुख पर झीना किसलय-अवगुंठन खींचे
बैठी उन्मन प्रेम-व्यथायें भर कंपित स्वर-लहरी में,
चिर-एकाकिनीएकाकिनि! अयि मरुवासिनीअयि मरुवासिनि! इस पीपल -तरु के नीचे
कौन वसंती स्वर अलापती तुम निर्जन दोपहरी में?
 
धूल भरी पलकें मलती, अलकें कपोल से खिसकाती,
बारबार कटि-वसन खींचती, विस्मित खोयी-सी निज में,
शिथिल  करों शिथिल करों से पोंछ अधर पर से रवि के चुम्बन, गाती
कौन, आह! तुम ओसकणी-सी जग के सूखे सरसिज में?
 
तुम वसंत-दूतिका,  शिशिर-सहचरी कि रानी हो वन की?
या तीनों से भिन्न कल्पना हो केवल कवि के मन की?
</poem> 
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