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घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लताज्योतिर्मीयिलता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
दृगों को रँग गई गयी प्रथम प्रणय-रश्मि,-
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये!
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुईहुई।
अपनी ही दृष्टि में;
जो था समीप विश्व,
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी;,
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँधकर मैं रह गईगयी;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी!
बँधी हुई तुमसे ही
भाव बदला हुआ-
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया!
देखती हुई सहज
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई!
चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेषहीन निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि!
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व, उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
उनकी ही मैं हुई! 
समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।
 
बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
लहरों में हृदय की
भूल-सी मैं गयी
संसृति के दुःख-घात;,श्लथ-गात, तुम में तुममें ज्यों
रही मैं बद्ध हो।
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
भिन्न-धर्मभाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।
 
किन्तु दिन रात का,
जल और पृथ्वी का
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के !
 
अन्धकार था हृदय
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
गृह-जन थे कर्म पर।
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।
 
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
चल दी मैं मुक्त, साथ।
 
एक बार की ऋणी
उद्धार के लिए,
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।
 
पूर्ण मैं कर चुकी।
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
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