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"खेंची लबों ने आह के सीने पे आया हाथ / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

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वो आस्माँ मिज़ाज कहां आस्माँ से था
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उसके हरेक ज़ुल्म को कहता या अ़द्ल2 मैं
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साया मिरे भी सर पे उसी सायबाँ से था
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इक साहिरा3 ने मोम से पत्थर किया जिसे
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वो क़िस्सा-ए-लतीफ़ मिरी दास्ताँ से था
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रिश्ता ये किस ग़रीब का उर्दू ज़बाँ से था
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17:44, 28 जनवरी 2015 का अवतरण

कविता कोष बदलाव कोई शब्द मीनिंग नहीं


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शब्दार्थ
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वो आस्माँ मिज़ाज कहां आस्माँ से था
उसका वजूद भी तो इसक ख़ाकदाँ1 से था

उसके हरेक ज़ुल्म को कहता या अ़द्ल2 मैं
साया मिरे भी सर पे उसी सायबाँ से था

इक साहिरा3 ने मोम से पत्थर किया जिसे
वो क़िस्सा-ए-लतीफ़ मिरी दास्ताँ से था

गरदान4 कर मैं आया हूँ मीज़ाने-फ़ायलात5
अबके हमारा सामना उस नुक्तादाँ6 से था

ये मुफ़लिसी की आँच में झुलसी हुई ग़ज़ल
रिश्ता ये किस ग़रीब का उर्दू ज़बाँ से था

1. धरती 2. न्याय 3. जादूगरनी 4. पुनरावृत्ति 5. छंद मापन विधि 6. श्रेष्ठ

शब्दार्थ
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खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ ।
बस पर सवार दूर से उसने हिलाया हाथ ।

महफ़िल में यूँ भी बारहा उसने मिलाया हाथ ।
लहजा था ना-शनास<ref>अपरिचित</ref> मगर मुस्कुराया हाथ ।

फूलों में उसकी साँस की आहट सुनाई दी,
बादे सबा<ref>सुबह की ख़ुशबूदार हवा</ref> ने चुपके से आकर दबाया हाथ ।

यूं ज़िन्दगी से मेरे मरासिम<ref>तअल्लुक़ात</ref> हैं आज कल,
हाथों में जैसे थाम ले कोई पराया हाथ ।

मैं था ख़मोश जब तो ज़बाँ सबके पास थी,
अब सब हैं लाजवाब तो मैंने उठाया हाथ ।

शब्दार्थ
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