"काम / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | ||
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− | जागरण-लोक था भूल चला | + | जागरण-लोक था भूल चला, |
− | + | स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। | |
− | स्वप्नों का सुख-संचार | + | कौतुक सा बन मनु के मन का, |
− | + | ||
− | कौतुक सा बन मनु के मन का | + | |
− | + | ||
वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। | वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ। | ||
+ | था व्यक्ति सोचता आलस में, | ||
+ | चेतना सजग रहती दुहरी। | ||
+ | कानों के कान खोल करके, | ||
+ | सुनती थी कोई ध्वनि गहरी। | ||
− | + | "प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा, | |
− | + | संतुष्ट ओध से मैं न हुआ। | |
− | + | आया फिर भी वह चला गया, | |
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− | "प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा | + | |
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− | संतुष्ट ओध से मैं न | + | |
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− | आया फिर भी वह चला गया | + | |
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तृष्णा को तनिक न चैन हुआ। | तृष्णा को तनिक न चैन हुआ। | ||
− | + | देवों की सृष्टि विलिन हुई, | |
− | देवों की सृष्टि विलिन हुई | + | अनुशीलन में अनुदिन मेरे। |
− | + | मेरा अतिचार न बंद हुआ, | |
− | अनुशीलन में अनुदिन | + | |
− | + | ||
− | मेरा अतिचार न बंद हुआ | + | |
− | + | ||
उन्मत्त रहा सबको घेरे। | उन्मत्त रहा सबको घेरे। | ||
+ | मेरी उपासना करते वे, | ||
+ | मेरा संकेत विधान बना। | ||
+ | विस्तृत जो मोह रहा मेरा, | ||
+ | वह देव-विलास-वितान तना। | ||
− | + | मैं काम, रहा सहचर उनका, | |
− | + | उनके विनोद का साधन था। | |
− | + | हँसता था और हँसाता था, | |
− | + | ||
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− | + | ||
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− | मैं काम, रहा सहचर उनका | + | |
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− | उनके विनोद का साधन | + | |
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− | हँसता था और हँसाता था | + | |
− | + | ||
उनका मैं कृतिमय जीवन था। | उनका मैं कृतिमय जीवन था। | ||
− | + | जो आकर्षण बन हँसती थी, | |
− | जो आकर्षण बन हँसती थी | + | रति थी अनादि-वासना वही। |
− | + | अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के, | |
− | रति थी अनादि-वासना | + | |
− | + | ||
− | अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के | + | |
− | + | ||
अंतर में उसकी चाह रही। | अंतर में उसकी चाह रही। | ||
− | + | हम दोनों का अस्तित्व रहा, | |
− | हम दोनों का अस्तित्व रहा | + | |
− | + | ||
उस आरंभिक आवर्त्तन-सा। | उस आरंभिक आवर्त्तन-सा। | ||
− | + | जिससे संसृति का बनता है, | |
− | जिससे संसृति का बनता है | + | |
− | + | ||
आकार रूप के नर्त्तन-सा। | आकार रूप के नर्त्तन-सा। | ||
− | + | उस प्रकृति-लता के यौवन में, | |
− | उस प्रकृति-लता के यौवन में | + | उस पुष्पवती के माधव का। |
− | + | मधु-हास हुआ था वह पहला, | |
− | उस पुष्पवती के माधव | + | |
− | + | ||
− | मधु-हास हुआ था वह पहला | + | |
− | + | ||
दो रूप मधुर जो ढाल सका।" | दो रूप मधुर जो ढाल सका।" | ||
− | + | "वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई, | |
− | "वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई | + | अपने आलस का त्याग किये। |
− | + | परमाणु बल सब दौड़ पड़े, | |
− | अपने आलस का त्याग | + | |
− | + | ||
− | परमाणु बल सब दौड़ पड़े | + | |
− | + | ||
जिसका सुंदर अनुराग लिये। | जिसका सुंदर अनुराग लिये। | ||
− | + | कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से, | |
− | कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से | + | मिलने को गले ललकते से। |
− | + | अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के, | |
− | मिलने को गले ललकते | + | |
− | + | ||
− | अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के | + | |
− | + | ||
विद्युत्कण मिले झलकते से। | विद्युत्कण मिले झलकते से। | ||
+ | वह आकर्षण, वह मिलन हुआ, | ||
+ | प्रारंभ माधुरी छाया में। | ||
+ | जिसको कहते सब सृष्टि,बनी | ||
+ | मतवाली माया में। | ||
− | + | प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी, | |
− | + | संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही। | |
− | + | ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था, | |
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− | प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी | + | |
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− | संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि | + | |
− | + | ||
− | ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था | + | |
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मादक मरंद की वृष्टि रही। | मादक मरंद की वृष्टि रही। | ||
− | + | भुज-लता पड़ी सरिताओं की, | |
− | भुज-लता पड़ी सरिताओं की | + | शैलों के गले सनाथ हुए। |
− | + | जलनिधि का अंचल व्यजन बना, | |
− | शैलों के गले सनाथ | + | |
− | + | ||
− | जलनिधि का अंचल व्यजन बना | + | |
− | + | ||
धरणी के दो-दो साथ हुए। | धरणी के दो-दो साथ हुए। | ||
+ | कोरक अंकुर-सा जन्म रहा, | ||
+ | हम दोनों साथी झूल चले। | ||
+ | उस नवल सर्ग के कानन में, | ||
+ | मृदु मलयानिल के फूल चले। | ||
− | + | हम भूख-प्यास से जाग उठे, | |
− | + | आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में। | |
− | + | रति-काम बने उस रचना में जो, | |
− | + | ||
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− | + | ||
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− | हम भूख-प्यास से जाग उठे | + | |
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− | आकांक्षा-तृप्ति समन्वय | + | |
− | + | ||
− | रति-काम बने उस रचना में जो | + | |
− | + | ||
रही नित्य-यौवन वय में?' | रही नित्य-यौवन वय में?' | ||
− | + | "सुरबालाओं की सखी रही, | |
− | "सुरबालाओं की सखी रही | + | |
− | + | ||
उनकी हृत्त्री की लय थी | उनकी हृत्त्री की लय थी | ||
− | + | रति, उनके मन को सुलझाती, | |
− | रति, उनके मन को सुलझाती | + | |
− | + | ||
वह राग-भरी थी, मधुमय थी। | वह राग-भरी थी, मधुमय थी। | ||
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मैं तृष्णा था विकसित करता, | मैं तृष्णा था विकसित करता, | ||
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वह तृप्ति दिखती थी उनकी, | वह तृप्ति दिखती थी उनकी, | ||
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आनन्द-समन्वय होता था | आनन्द-समन्वय होता था | ||
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हम ले चलते पथ पर उनको। | हम ले चलते पथ पर उनको। | ||
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वे अमर रहे न विनोद रहा, | वे अमर रहे न विनोद रहा, | ||
− | + | चेतना रही, अनंग हुआ। | |
− | चेतना रही, अनंग | + | हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये, |
− | + | ||
− | हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये | + | |
− | + | ||
संचित का सरल प्रंसग हुआ।" | संचित का सरल प्रंसग हुआ।" | ||
− | + | "यह नीड़ मनोहर कृतियों का, | |
− | "यह नीड़ मनोहर कृतियों का | + | यह विश्व कर्म रंगस्थल है। |
− | + | है परंपरा लग रही यहाँ, | |
− | यह विश्व कर्म रंगस्थल | + | |
− | + | ||
− | है परंपरा लग रही यहाँ | + | |
− | + | ||
ठहरा जिसमें जितना बल है। | ठहरा जिसमें जितना बल है। | ||
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वे कितने ऐसे होते हैं | वे कितने ऐसे होते हैं | ||
− | + | जो केवल साधन बनते हैं। | |
− | जो केवल साधन बनते | + | आरंभ और परिणामों को, |
− | + | ||
− | आरंभ और परिणामों को | + | |
− | + | ||
संबध सूत्र से बुनते हैं। | संबध सूत्र से बुनते हैं। | ||
− | + | ऊषा की सज़ल गुलाली जो, | |
− | ऊषा की सज़ल गुलाली | + | घुलती है नीले अंबर में। |
− | + | वह क्या? क्या तुम देख रहे, | |
− | + | ||
− | + | ||
− | वह क्या? क्या तुम देख रहे | + | |
− | + | ||
वर्णों के मेघाडंबर में? | वर्णों के मेघाडंबर में? | ||
− | + | अंतर है दिन औ 'रजनी का | |
− | अंतर है दिन औ 'रजनी का यह | + | यह, साधक-कर्म बिखरता है। |
− | + | माया के नीले अंचल में, | |
− | साधक-कर्म बिखरता | + | |
− | + | ||
− | माया के नीले अंचल में | + | |
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आलोक बिदु-सा झरता है।" | आलोक बिदु-सा झरता है।" | ||
− | + | "आरंभिक वात्या-उद्गम मैं, | |
− | + | अब प्रगति बन रहा संसृति का। | |
− | "आरंभिक वात्या-उद्गम मैं | + | मानव की शीतल छाया में, |
− | + | ||
− | अब प्रगति बन रहा संसृति | + | |
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− | मानव की शीतल छाया में | + | |
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ऋणशोध करूँगा निज कृति का। | ऋणशोध करूँगा निज कृति का। | ||
− | + | दोनों का समुचित परिवर्त्तन, | |
− | + | जीवन में शुद्ध विकास हुआ। | |
− | दोनों का समुचित परिवर्त्तन | + | प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई, |
− | + | ||
− | जीवन में शुद्ध विकास | + | |
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− | प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई | + | |
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जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ। | जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ। | ||
− | + | यह लीला जिसकी विकस चली, | |
− | यह लीला जिसकी विकस चली | + | वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला। |
− | + | उसका संदेश सुनाने को, | |
− | वह मूल शक्ति थी प्रेम- | + | |
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− | उसका संदेश सुनाने को | + | |
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संसृति में आयी वह अमला। | संसृति में आयी वह अमला। | ||
− | + | हम दोनों की संतान वही, | |
− | हम दोनों की संतान वही | + | कितनी सुंदर भोली-भाली। |
− | + | रंगों ने जिससे खेला हो, | |
− | कितनी सुंदर भोली- | + | |
− | + | ||
− | रंगों ने | + | |
− | + | ||
ऐसे फूलों की वह डाली। | ऐसे फूलों की वह डाली। | ||
− | + | जड़-चेतनता की गाँठ वही, | |
− | जड़-चेतनता की गाँठ वही | + | |
− | + | ||
सुलझन है भूल-सुधारों की। | सुलझन है भूल-सुधारों की। | ||
− | + | वह शीतलता है शांतिमयी, | |
− | वह शीतलता है शांतिमयी | + | |
− | + | ||
जीवन के उष्ण विचारों की। | जीवन के उष्ण विचारों की। | ||
− | + | उसको पाने की इच्छा हो | |
− | उसको पाने की इच्छा हो तो | + | तो, "योग्य बनो"-कहती-कहती, |
− | + | वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा, | |
− | योग्य बनो"-कहती-कहती | + | |
− | + | ||
− | वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा | + | |
− | + | ||
जैसे मुरली चुप हो रहती। | जैसे मुरली चुप हो रहती। | ||
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मनु आँख खोलकर पूछ रहे- | मनु आँख खोलकर पूछ रहे- | ||
+ | "पथ कौन वहाँ पहुँचाता है? | ||
+ | उस ज्योतिमयी को देव कहो, | ||
+ | कैसे कोई नर पाता है?" | ||
− | + | पर कौन वहाँ उत्तर देता, | |
− | + | वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ। | |
− | + | देखा तो सुंदर प्राची में, | |
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− | पर कौन वहाँ उत्तर देता | + | |
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− | वह स्वप्न अनोखा भंग | + | |
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− | देखा तो सुंदर प्राची में | + | |
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अरूणोदय का रस-रंग हुआ। | अरूणोदय का रस-रंग हुआ। | ||
− | + | उस लता कुंज की झिल-मिल से, | |
− | उस लता कुंज की झिल-मिल से | + | हेमाभरश्मि थी खेल रही। |
− | + | देवों के सोम-सुधा-रस की, | |
− | हेमाभरश्मि थी खेल | + | |
− | + | ||
− | देवों के सोम-सुधा-रस की | + | |
− | + | ||
मनु के हाथों में बेल रही। | मनु के हाथों में बेल रही। |
19:39, 8 फ़रवरी 2015 का अवतरण
जागरण-लोक था भूल चला, स्वप्नों का सुख-संचार हुआ। कौतुक सा बन मनु के मन का, वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।
था व्यक्ति सोचता आलस में, चेतना सजग रहती दुहरी। कानों के कान खोल करके, सुनती थी कोई ध्वनि गहरी।
"प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा, संतुष्ट ओध से मैं न हुआ। आया फिर भी वह चला गया, तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।
देवों की सृष्टि विलिन हुई, अनुशीलन में अनुदिन मेरे। मेरा अतिचार न बंद हुआ, उन्मत्त रहा सबको घेरे।
मेरी उपासना करते वे, मेरा संकेत विधान बना। विस्तृत जो मोह रहा मेरा, वह देव-विलास-वितान तना।
मैं काम, रहा सहचर उनका, उनके विनोद का साधन था। हँसता था और हँसाता था, उनका मैं कृतिमय जीवन था।
जो आकर्षण बन हँसती थी, रति थी अनादि-वासना वही। अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के, अंतर में उसकी चाह रही।
हम दोनों का अस्तित्व रहा, उस आरंभिक आवर्त्तन-सा। जिससे संसृति का बनता है, आकार रूप के नर्त्तन-सा।
उस प्रकृति-लता के यौवन में, उस पुष्पवती के माधव का। मधु-हास हुआ था वह पहला, दो रूप मधुर जो ढाल सका।"
"वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई, अपने आलस का त्याग किये। परमाणु बल सब दौड़ पड़े, जिसका सुंदर अनुराग लिये।
कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से, मिलने को गले ललकते से। अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के, विद्युत्कण मिले झलकते से।
वह आकर्षण, वह मिलन हुआ, प्रारंभ माधुरी छाया में। जिसको कहते सब सृष्टि,बनी मतवाली माया में।
प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी, संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही। ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था, मादक मरंद की वृष्टि रही।
भुज-लता पड़ी सरिताओं की, शैलों के गले सनाथ हुए। जलनिधि का अंचल व्यजन बना, धरणी के दो-दो साथ हुए।
कोरक अंकुर-सा जन्म रहा, हम दोनों साथी झूल चले। उस नवल सर्ग के कानन में, मृदु मलयानिल के फूल चले।
हम भूख-प्यास से जाग उठे, आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में। रति-काम बने उस रचना में जो, रही नित्य-यौवन वय में?'
"सुरबालाओं की सखी रही, उनकी हृत्त्री की लय थी रति, उनके मन को सुलझाती, वह राग-भरी थी, मधुमय थी।
मैं तृष्णा था विकसित करता, वह तृप्ति दिखती थी उनकी, आनन्द-समन्वय होता था हम ले चलते पथ पर उनको।
वे अमर रहे न विनोद रहा, चेतना रही, अनंग हुआ। हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये, संचित का सरल प्रंसग हुआ।"
"यह नीड़ मनोहर कृतियों का, यह विश्व कर्म रंगस्थल है। है परंपरा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है।
वे कितने ऐसे होते हैं जो केवल साधन बनते हैं। आरंभ और परिणामों को, संबध सूत्र से बुनते हैं।
ऊषा की सज़ल गुलाली जो, घुलती है नीले अंबर में। वह क्या? क्या तुम देख रहे, वर्णों के मेघाडंबर में?
अंतर है दिन औ 'रजनी का यह, साधक-कर्म बिखरता है। माया के नीले अंचल में, आलोक बिदु-सा झरता है।"
"आरंभिक वात्या-उद्गम मैं, अब प्रगति बन रहा संसृति का। मानव की शीतल छाया में, ऋणशोध करूँगा निज कृति का।
दोनों का समुचित परिवर्त्तन, जीवन में शुद्ध विकास हुआ। प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई, जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।
यह लीला जिसकी विकस चली, वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला। उसका संदेश सुनाने को, संसृति में आयी वह अमला।
हम दोनों की संतान वही, कितनी सुंदर भोली-भाली। रंगों ने जिससे खेला हो, ऐसे फूलों की वह डाली।
जड़-चेतनता की गाँठ वही, सुलझन है भूल-सुधारों की। वह शीतलता है शांतिमयी, जीवन के उष्ण विचारों की।
उसको पाने की इच्छा हो तो, "योग्य बनो"-कहती-कहती, वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा, जैसे मुरली चुप हो रहती।
मनु आँख खोलकर पूछ रहे- "पथ कौन वहाँ पहुँचाता है? उस ज्योतिमयी को देव कहो, कैसे कोई नर पाता है?"
पर कौन वहाँ उत्तर देता, वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ। देखा तो सुंदर प्राची में, अरूणोदय का रस-रंग हुआ।
उस लता कुंज की झिल-मिल से, हेमाभरश्मि थी खेल रही। देवों के सोम-सुधा-रस की, मनु के हाथों में बेल रही।