"वासना / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
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पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
चल पड़े कब से हृदय दो, | चल पड़े कब से हृदय दो, | ||
− | पथिक-से | + | पथिक-से अश्रांत। |
यहाँ मिलने के लिये, | यहाँ मिलने के लिये, | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
एक गृहपति, दूसरा था | एक गृहपति, दूसरा था | ||
− | अतिथि विगत- | + | अतिथि विगत-विकार। |
प्रश्न था यदि एक, | प्रश्न था यदि एक, | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 23: | ||
एक जीवन-सिंधु था, | एक जीवन-सिंधु था, | ||
− | तो वह लहर लघु | + | तो वह लहर लघु लोल। |
एक नवल प्रभात, | एक नवल प्रभात, | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
एक था आकाश वर्षा | एक था आकाश वर्षा | ||
− | का सजल | + | का सजल उद्धाम। |
दूसरा रंजित किरण से | दूसरा रंजित किरण से | ||
पंक्ति 41: | पंक्ति 41: | ||
नदी-तट के क्षितिज में | नदी-तट के क्षितिज में | ||
− | नव जलद | + | नव जलद सांयकाल। |
खेलता दो बिजलियों से | खेलता दो बिजलियों से | ||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
लड़ रहे थे अविरत युगल | लड़ रहे थे अविरत युगल | ||
− | थे चेतना के | + | थे चेतना के पाश। |
एक सकता था न | एक सकता था न | ||
पंक्ति 59: | पंक्ति 59: | ||
था समर्पण में ग्रहण का | था समर्पण में ग्रहण का | ||
− | एक सुनिहित | + | एक सुनिहित भाव। |
थी प्रगति, पर अड़ा रहता | थी प्रगति, पर अड़ा रहता | ||
पंक्ति 68: | पंक्ति 68: | ||
चल रहा था विजन-पथ पर | चल रहा था विजन-पथ पर | ||
− | मधुर जीवन- | + | मधुर जीवन-खेल। |
दो अपरिचित से नियति | दो अपरिचित से नियति | ||
पंक्ति 77: | पंक्ति 77: | ||
नित्य परिचित हो रहे | नित्य परिचित हो रहे | ||
− | तब भी रहा कुछ | + | तब भी रहा कुछ शेष। |
गूढ अंतर का छिपा | गूढ अंतर का छिपा | ||
पंक्ति 84: | पंक्ति 84: | ||
− | दूर, जैसे सघन वन-पथ | + | दूर, जैसे सघन वन-पथ |
− | अंत का | + | अंत का आलोक। |
सतत होता जा रहा हो, | सतत होता जा रहा हो, | ||
पंक्ति 95: | पंक्ति 95: | ||
गिर रहा निस्तेज गोलक | गिर रहा निस्तेज गोलक | ||
− | जलधि में | + | जलधि में असहाय। |
घन-पटल में डूबता था | घन-पटल में डूबता था | ||
पंक्ति 104: | पंक्ति 104: | ||
कर्म का अवसाद दिन से | कर्म का अवसाद दिन से | ||
− | कर रहा छल- | + | कर रहा छल-छंद। |
मधुकरी का सुरस-संचय | मधुकरी का सुरस-संचय | ||
पंक्ति 113: | पंक्ति 113: | ||
उठ रही थी कालिमा | उठ रही थी कालिमा | ||
− | धूसर क्षितिज से | + | धूसर क्षितिज से दीन। |
भेंटता अंतिम अरूण | भेंटता अंतिम अरूण | ||
पंक्ति 122: | पंक्ति 122: | ||
यह दरिद्र-मिलन रहा | यह दरिद्र-मिलन रहा | ||
− | रच एक करूणा | + | रच एक करूणा लोक। |
शोक भर निर्जन निलय से | शोक भर निर्जन निलय से | ||
पंक्ति 131: | पंक्ति 131: | ||
मनु अभी तक मनन करते | मनु अभी तक मनन करते | ||
− | थे लगाये | + | थे लगाये ध्यान। |
काम के संदेश से ही | काम के संदेश से ही | ||
पंक्ति 140: | पंक्ति 140: | ||
इधर गृह में आ जुटे थे | इधर गृह में आ जुटे थे | ||
− | उपकरण | + | उपकरण अधिकार। |
शस्य, पशु या धान्य | शस्य, पशु या धान्य | ||
पंक्ति 149: | पंक्ति 149: | ||
नई इच्छा खींच लाती, | नई इच्छा खींच लाती, | ||
− | अतिथि का | + | अतिथि का संकेत। |
चल रहा था सरल-शासन | चल रहा था सरल-शासन | ||
पंक्ति 158: | पंक्ति 158: | ||
देखते थे अग्निशाला | देखते थे अग्निशाला | ||
− | से कुतुहल- | + | से कुतुहल-युक्त। |
मनु चमत्कृत निज नियति | मनु चमत्कृत निज नियति | ||
पंक्ति 167: | पंक्ति 167: | ||
एक माया आ रहा था | एक माया आ रहा था | ||
− | पशु अतिथि के | + | पशु अतिथि के साथ। |
हो रहा था मोह | हो रहा था मोह | ||
पंक्ति 176: | पंक्ति 176: | ||
चपल कोमल-कर रहा | चपल कोमल-कर रहा | ||
− | फिर सतत पशु के | + | फिर सतत पशु के अंग। |
− | स्नेह से करता चमर | + | स्नेह से करता चमर |
उदग्रीव हो वह संग। | उदग्रीव हो वह संग। | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
कभी पुलकित रोम राजी | कभी पुलकित रोम राजी | ||
− | से शरीर | + | से शरीर उछाल। |
भाँवरों से निज बनाता | भाँवरों से निज बनाता | ||
पंक्ति 194: | पंक्ति 194: | ||
कभी निज़ भोले नयन से | कभी निज़ भोले नयन से | ||
− | अतिथि बदन | + | अतिथि बदन निहार। |
सकल संचित-स्नेह | सकल संचित-स्नेह | ||
पंक्ति 203: | पंक्ति 203: | ||
और वह पुचकारने का | और वह पुचकारने का | ||
− | स्नेह शबलित | + | स्नेह शबलित चाव। |
मंजु ममता से मिला | मंजु ममता से मिला | ||
पंक्ति 212: | पंक्ति 212: | ||
देखते-ही-देखते | देखते-ही-देखते | ||
− | दोनों पहुँच कर | + | दोनों पहुँच कर पास। |
लगे करने सरल शोभन | लगे करने सरल शोभन | ||
पंक्ति 221: | पंक्ति 221: | ||
वह विराग-विभूति | वह विराग-विभूति | ||
− | ईर्षा-पवन से हो | + | ईर्षा-पवन से हो व्यस्त। |
बिखरती थी और खुलते थे | बिखरती थी और खुलते थे | ||
पंक्ति 248: | पंक्ति 248: | ||
मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते | मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते | ||
− | सभी निज | + | सभी निज भाग। |
और देते फेंक मेरा | और देते फेंक मेरा | ||
पंक्ति 257: | पंक्ति 257: | ||
अरी नीच कृतघ्नते! | अरी नीच कृतघ्नते! | ||
− | पिच्छल-शिला- | + | पिच्छल-शिला-संलग्न। |
मलिन काई-सी करेगी | मलिन काई-सी करेगी | ||
पंक्ति 266: | पंक्ति 266: | ||
हृदय का राजस्व अपहृत | हृदय का राजस्व अपहृत | ||
− | कर अधम | + | कर अधम अपराध। |
दस्यु मुझसे चाहते हैं | दस्यु मुझसे चाहते हैं | ||
पंक्ति 275: | पंक्ति 275: | ||
विश्व में जो सरल सुंदर | विश्व में जो सरल सुंदर | ||
− | हो विभूति | + | हो विभूति महान। |
सभी मेरी हैं, सभी | सभी मेरी हैं, सभी | ||
पंक्ति 284: | पंक्ति 284: | ||
यही तो, मैं ज्वलित | यही तो, मैं ज्वलित | ||
− | वाडव-वह्नि नित्य- | + | वाडव-वह्नि नित्य-अशांत। |
सिंधु लहरों सा करें | सिंधु लहरों सा करें | ||
पंक्ति 293: | पंक्ति 293: | ||
आ गया फिर पास | आ गया फिर पास | ||
− | क्रीड़ाशील अतिथि | + | क्रीड़ाशील अतिथि उदार। |
चपल शैशव सा मनोहर | चपल शैशव सा मनोहर | ||
पंक्ति 302: | पंक्ति 302: | ||
कहा "क्यों तुम अभी | कहा "क्यों तुम अभी | ||
− | बैठे ही रहे धर | + | बैठे ही रहे धर ध्यान। |
देखती हैं आँख कुछ, | देखती हैं आँख कुछ, | ||
पंक्ति 309: | पंक्ति 309: | ||
− | मन कहीं, यह क्या हुआ है ? | + | मन कहीं, यह क्या हुआ है? |
− | आज कैसा रंग? " | + | आज कैसा रंग?" |
नत हुआ फण दृप्त | नत हुआ फण दृप्त | ||
पंक्ति 318: | पंक्ति 318: | ||
− | और सहलाने लागा कर | + | और सहलाने लागा कर |
− | कमल कोमल | + | कमल कोमल कांत। |
देख कर वह रूप -सुषमा | देख कर वह रूप -सुषमा | ||
पंक्ति 327: | पंक्ति 327: | ||
− | कहा " अतिथि! कहाँ रहे | + | कहा "अतिथि! कहाँ रहे |
तुम किधर थे अज्ञात? | तुम किधर थे अज्ञात? | ||
पंक्ति 333: | पंक्ति 333: | ||
और यह सहचर तुम्हारा | और यह सहचर तुम्हारा | ||
− | कर रहा ज्यों | + | कर रहा ज्यों बात। |
पंक्ति 347: | पंक्ति 347: | ||
कौन हो तुम खींचते यों | कौन हो तुम खींचते यों | ||
− | मुझे अपनी | + | मुझे अपनी ओर। |
ओर ललचाते स्वयं | ओर ललचाते स्वयं | ||
− | हटते उधर की | + | हटते उधर की ओर। |
ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती | ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती | ||
− | ही नहीं यह | + | ही नहीं यह आँख। |
तुम्हें कुछ पहचानने की | तुम्हें कुछ पहचानने की | ||
पंक्ति 374: | पंक्ति 374: | ||
पशु कि हो पाषाण | पशु कि हो पाषाण | ||
− | सब में नृत्य का नव | + | सब में नृत्य का नव छंद। |
एक आलिगंन बुलाता | एक आलिगंन बुलाता | ||
पंक्ति 383: | पंक्ति 383: | ||
राशि-राशि बिखर पड़ा | राशि-राशि बिखर पड़ा | ||
− | है शांत संचित | + | है शांत संचित प्यार। |
रख रहा है उसे ढोकर | रख रहा है उसे ढोकर | ||
पंक्ति 392: | पंक्ति 392: | ||
देखता हूँ चकित जैसे | देखता हूँ चकित जैसे | ||
− | ललित लतिका- | + | ललित लतिका-लास। |
− | + | अरुण घन की सजल | |
− | छाया में दिनांत | + | छाया में दिनांत निवास। |
और उसमें हो चला | और उसमें हो चला | ||
− | जैसे सहज | + | जैसे सहज सविलास। |
मदिर माधव-यामिनी का | मदिर माधव-यामिनी का | ||
पंक्ति 410: | पंक्ति 410: | ||
आह यह जो रहा | आह यह जो रहा | ||
− | सूना पड़ा कोना | + | सूना पड़ा कोना दीन। |
ध्वस्त मंदिर का, | ध्वस्त मंदिर का, | ||
− | बसाता जिसे कोई भी | + | बसाता जिसे कोई भी न। |
उसी में विश्राम माया का | उसी में विश्राम माया का | ||
− | अचल | + | अचल आवास। |
अरे यह सुख नींद कैसी, | अरे यह सुख नींद कैसी, | ||
पंक्ति 437: | पंक्ति 437: | ||
कामना की किरण का | कामना की किरण का | ||
− | जिसमें मिला हो | + | जिसमें मिला हो ओज़। |
कौन हो तुम, इसी | कौन हो तुम, इसी | ||
पंक्ति 455: | पंक्ति 455: | ||
कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं, | कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं, | ||
− | और परिचय | + | और परिचय व्यर्थ। |
तुम कभी उद्विग्न | तुम कभी उद्विग्न | ||
पंक्ति 464: | पंक्ति 464: | ||
चलो, देखो वह चला | चलो, देखो वह चला | ||
− | आता बुलाने | + | आता बुलाने आज। |
सरल हँसमुख विधु जलद- | सरल हँसमुख विधु जलद- | ||
लघु-खंड-वाहन साज़। | लघु-खंड-वाहन साज़। |
20:55, 9 फ़रवरी 2015 का अवतरण
चल पड़े कब से हृदय दो,
पथिक-से अश्रांत।
यहाँ मिलने के लिये,
जो भटकते थे भ्रांत।
एक गृहपति, दूसरा था
अतिथि विगत-विकार।
प्रश्न था यदि एक,
तो उत्तर द्वितीय उदार।
एक जीवन-सिंधु था,
तो वह लहर लघु लोल।
एक नवल प्रभात,
तो वह स्वर्ण-किरण अमोल।
एक था आकाश वर्षा
का सजल उद्धाम।
दूसरा रंजित किरण से
श्री-कलित घनश्याम।
नदी-तट के क्षितिज में
नव जलद सांयकाल।
खेलता दो बिजलियों से
ज्यों मधुरिमा-जाल।
लड़ रहे थे अविरत युगल
थे चेतना के पाश।
एक सकता था न
कोई दूसरे को फाँस।
था समर्पण में ग्रहण का
एक सुनिहित भाव।
थी प्रगति, पर अड़ा रहता
था सतत अटकाव।
चल रहा था विजन-पथ पर
मधुर जीवन-खेल।
दो अपरिचित से नियति
अब चाहती थी मेल।
नित्य परिचित हो रहे
तब भी रहा कुछ शेष।
गूढ अंतर का छिपा
रहता रहस्य विशेष।
दूर, जैसे सघन वन-पथ
अंत का आलोक।
सतत होता जा रहा हो,
नयन की गति रोक।
गिर रहा निस्तेज गोलक
जलधि में असहाय।
घन-पटल में डूबता था
किरण का समुदाय।
कर्म का अवसाद दिन से
कर रहा छल-छंद।
मधुकरी का सुरस-संचय
हो चला अब बंद।
उठ रही थी कालिमा
धूसर क्षितिज से दीन।
भेंटता अंतिम अरूण
आलोक-वैभव-हीन।
यह दरिद्र-मिलन रहा
रच एक करूणा लोक।
शोक भर निर्जन निलय से
बिछुड़ते थे कोक।
मनु अभी तक मनन करते
थे लगाये ध्यान।
काम के संदेश से ही
भर रहे थे कान।
इधर गृह में आ जुटे थे
उपकरण अधिकार।
शस्य, पशु या धान्य
का होने लगा संचार।
नई इच्छा खींच लाती,
अतिथि का संकेत।
चल रहा था सरल-शासन
युक्त-सुरूचि-समेत।
देखते थे अग्निशाला
से कुतुहल-युक्त।
मनु चमत्कृत निज नियति
का खेल बंधन-मुक्त।
एक माया आ रहा था
पशु अतिथि के साथ।
हो रहा था मोह
करुणा से सजीव सनाथ।
चपल कोमल-कर रहा
फिर सतत पशु के अंग।
स्नेह से करता चमर
उदग्रीव हो वह संग।
कभी पुलकित रोम राजी
से शरीर उछाल।
भाँवरों से निज बनाता
अतिथि सन्निधि जाल।
कभी निज़ भोले नयन से
अतिथि बदन निहार।
सकल संचित-स्नेह
देता दृष्टि-पथ से ढार।
और वह पुचकारने का
स्नेह शबलित चाव।
मंजु ममता से मिला
बन हृदय का सदभाव।
देखते-ही-देखते
दोनों पहुँच कर पास।
लगे करने सरल शोभन
मधुर मुग्ध विलास।
वह विराग-विभूति
ईर्षा-पवन से हो व्यस्त।
बिखरती थी और खुलते थे
ज्वलन-कण जो अस्त।
किन्तु यह क्या?
एक तीखी घूँट, हिचकी आह!
कौन देता है हृदय में
वेदनामय डाह?
"आह यह पशु और
इतना सरल सुन्दर स्नेह!
पल रहे मेरे दिये जो
अन्न से इस गेह।
मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते
सभी निज भाग।
और देते फेंक मेरा
प्राप्य तुच्छ विराग।
अरी नीच कृतघ्नते!
पिच्छल-शिला-संलग्न।
मलिन काई-सी करेगी
कितने हृदय भग्न?
हृदय का राजस्व अपहृत
कर अधम अपराध।
दस्यु मुझसे चाहते हैं
सुख सदा निर्बाध।
विश्व में जो सरल सुंदर
हो विभूति महान।
सभी मेरी हैं, सभी
करती रहें प्रतिदान।
यही तो, मैं ज्वलित
वाडव-वह्नि नित्य-अशांत।
सिंधु लहरों सा करें
शीतल मुझे सब शांत।"
आ गया फिर पास
क्रीड़ाशील अतिथि उदार।
चपल शैशव सा मनोहर
भूल का ले भार।
कहा "क्यों तुम अभी
बैठे ही रहे धर ध्यान।
देखती हैं आँख कुछ,
सुनते रहे कुछ कान-
मन कहीं, यह क्या हुआ है?
आज कैसा रंग?"
नत हुआ फण दृप्त
ईर्षा का, विलीन उमंग।
और सहलाने लागा कर
कमल कोमल कांत।
देख कर वह रूप -सुषमा
मनु हुए कुछ शांत।
कहा "अतिथि! कहाँ रहे
तुम किधर थे अज्ञात?
और यह सहचर तुम्हारा
कर रहा ज्यों बात।
किसी सुलभ भविष्य की,
क्यों आज अधिक अधीर?
मिल रहा तुमसे चिरंतन
स्नेह सा गंभीर?
कौन हो तुम खींचते यों
मुझे अपनी ओर।
ओर ललचाते स्वयं
हटते उधर की ओर।
ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती
ही नहीं यह आँख।
तुम्हें कुछ पहचानने की
खो गयी-सी साख।
कौन करूण रहस्य है
तुममें छिपा छविमान?
लता वीरूध दिया करते
जिसमें छायादान।
पशु कि हो पाषाण
सब में नृत्य का नव छंद।
एक आलिगंन बुलाता
सभा का सानंद।
राशि-राशि बिखर पड़ा
है शांत संचित प्यार।
रख रहा है उसे ढोकर
दीन विश्व उधार।
देखता हूँ चकित जैसे
ललित लतिका-लास।
अरुण घन की सजल
छाया में दिनांत निवास।
और उसमें हो चला
जैसे सहज सविलास।
मदिर माधव-यामिनी का
धीर-पद-विन्यास।
आह यह जो रहा
सूना पड़ा कोना दीन।
ध्वस्त मंदिर का,
बसाता जिसे कोई भी न।
उसी में विश्राम माया का
अचल आवास।
अरे यह सुख नींद कैसी,
हो रहा हिम-हास!
वासना की मधुर छाया!
स्वास्थ्य, बल, विश्राम!
हदय की सौंदर्य-प्रतिमा!
कौन तुम छविधाम?
कामना की किरण का
जिसमें मिला हो ओज़।
कौन हो तुम, इसी
भूले हृदय की चिर-खोज़?
कुंद-मंदिर-सी हँसी
ज्यों खुली सुषमा बाँट,
क्यों न वैसे ही खुला
यह हृदय रुद्ध-कपाट?
कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं,
और परिचय व्यर्थ।
तुम कभी उद्विग्न
इतने थे न इसके अर्थ।
चलो, देखो वह चला
आता बुलाने आज।
सरल हँसमुख विधु जलद-
लघु-खंड-वाहन साज़।