"वासना / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | ||
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− | कालिमा धुलने लगी | + | "कालिमा धुलने लगी |
− | घुलने लगा | + | घुलने लगा आलोक। |
इसी निभृत अनंत में | इसी निभृत अनंत में | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
इस निशामुख की मनोहर | इस निशामुख की मनोहर | ||
− | सुधामय | + | सुधामय मुस्कान। |
देख कर सब भूल जायें | देख कर सब भूल जायें | ||
− | + | दुःख के अनुमान। | |
देख लो, ऊँचे शिखर का | देख लो, ऊँचे शिखर का | ||
− | व्योम-चुबंन- | + | व्योम-चुबंन-व्यस्त। |
लौटना अंतिम किरण का | लौटना अंतिम किरण का | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
चलो तो इस कौमुदी में | चलो तो इस कौमुदी में | ||
− | देख आवें | + | देख आवें आज। |
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, | प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, | ||
पंक्ति 41: | पंक्ति 41: | ||
सृष्टि हँसने लगी | सृष्टि हँसने लगी | ||
− | आँखों में खिला | + | आँखों में खिला अनुराग। |
− | राग-रंजित चंद्रिका थी | + | राग-रंजित चंद्रिका थी |
उड़ा सुमन-पराग। | उड़ा सुमन-पराग। | ||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
और हँसता था अतिथि | और हँसता था अतिथि | ||
− | मनु का पकड़कर | + | मनु का पकड़कर हाथ। |
− | चले दोनों स्वप्न-पथ में | + | चले दोनों स्वप्न-पथ में |
स्नेह-संबल साथ। | स्नेह-संबल साथ। | ||
पंक्ति 59: | पंक्ति 59: | ||
देवदारु निकुंज गह्वर | देवदारु निकुंज गह्वर | ||
− | सब सुधा में | + | सब सुधा में स्नात। |
सब मनाते एक उत्सव | सब मनाते एक उत्सव | ||
पंक्ति 68: | पंक्ति 68: | ||
आ रही थी मदिर भीनी | आ रही थी मदिर भीनी | ||
− | माधवी की | + | माधवी की गंध। |
पवन के घन घिरे पड़ते थे | पवन के घन घिरे पड़ते थे | ||
पंक्ति 77: | पंक्ति 77: | ||
शिथिल अलसाई पड़ी | शिथिल अलसाई पड़ी | ||
− | छाया निशा की | + | छाया निशा की कांत। |
सो रही थी शिशिर कण की | सो रही थी शिशिर कण की | ||
पंक्ति 86: | पंक्ति 86: | ||
उसी झुरमुट में हृदय की | उसी झुरमुट में हृदय की | ||
− | भावना थी | + | भावना थी भ्रांत। |
जहाँ छाया सृजन करती | जहाँ छाया सृजन करती | ||
पंक्ति 95: | पंक्ति 95: | ||
कहा मनु ने "तुम्हें देखा | कहा मनु ने "तुम्हें देखा | ||
− | अतिथि! कितनी | + | अतिथि! कितनी बार। |
किंतु इतने तो न थे | किंतु इतने तो न थे | ||
पंक्ति 104: | पंक्ति 104: | ||
पूर्व-जन्म कहूँ कि था | पूर्व-जन्म कहूँ कि था | ||
− | स्पृहणीय मधुर | + | स्पृहणीय मधुर अतीत। |
गूँजते जब मदिर घन में | गूँजते जब मदिर घन में | ||
पंक्ति 113: | पंक्ति 113: | ||
भूल कर जिस दृश्य को | भूल कर जिस दृश्य को | ||
− | मैं बना आज़ | + | मैं बना आज़ अचेत। |
− | वही कुछ सव्रीड | + | वही कुछ सव्रीड |
सस्मित कर रहा संकेत। | सस्मित कर रहा संकेत। | ||
पंक्ति 122: | पंक्ति 122: | ||
"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ" | "मैं तुम्हारा हो रहा हूँ" | ||
− | यही सुदृढ | + | यही सुदृढ विचार। |
चेतना का परिधि | चेतना का परिधि | ||
पंक्ति 133: | पंक्ति 133: | ||
है काँपती सुकुमार? | है काँपती सुकुमार? | ||
− | पवन में है पुलक | + | पवन में है पुलक |
मथंर चल रहा मधु-भार। | मथंर चल रहा मधु-भार। | ||
पंक्ति 149: | पंक्ति 149: | ||
आज क्यों संदेह होता | आज क्यों संदेह होता | ||
− | रूठने का | + | रूठने का व्यर्थ। |
क्यों मनाना चाहता-सा | क्यों मनाना चाहता-सा | ||
पंक्ति 156: | पंक्ति 156: | ||
− | धमनियों में वेदना | + | धमनियों में वेदना |
− | सा रक्त का | + | सा रक्त का संचार। |
हृदय में है काँपती | हृदय में है काँपती | ||
− | धड़कन, लिये लघु | + | धड़कन, लिये लघु भार। |
चेतना रंगीन ज्वाला | चेतना रंगीन ज्वाला | ||
− | परिधि में | + | परिधि में सानंद। |
मानती-सी दिव्य-सुख | मानती-सी दिव्य-सुख | ||
पंक्ति 178: | पंक्ति 178: | ||
है भरी उत्साह, | है भरी उत्साह, | ||
− | और जीवित | + | और जीवित है |
न छाले हैं न उसमें दाह। | न छाले हैं न उसमें दाह। | ||
− | कौन हो तुम-माया | + | कौन हो तुम-माया |
− | कुहुक-सी | + | कुहुक-सी साकार। |
प्राण-सत्ता के मनोहर | प्राण-सत्ता के मनोहर | ||
पंक्ति 194: | पंक्ति 194: | ||
हृदय जिसकी कांत छाया | हृदय जिसकी कांत छाया | ||
− | में लिये | + | में लिये निश्वास। |
थके पथिक समान करता | थके पथिक समान करता | ||
पंक्ति 203: | पंक्ति 203: | ||
श्याम-नभ में मधु-किरण-सा | श्याम-नभ में मधु-किरण-सा | ||
− | फिर वही मृदु | + | फिर वही मृदु हास। |
सिंधु की हिलकोर | सिंधु की हिलकोर | ||
पंक्ति 210: | पंक्ति 210: | ||
− | कुंज में | + | कुंज में गुँजरित |
− | कोई मुकुल सा | + | कोई मुकुल सा अव्यक्त। |
− | लगा कहने अतिथि | + | लगा कहने अतिथि |
− | मनु थे सुन रहे | + | मनु थे सुन रहे अनुरक्त। |
− | "यह अतृप्ति अधीर मन की | + | "यह अतृप्ति अधीर मन की |
− | क्षोभयुक्त | + | क्षोभयुक्त उन्माद। |
सखे! तुमुल-तरंग-सा | सखे! तुमुल-तरंग-सा | ||
पंक्ति 228: | पंक्ति 228: | ||
− | मत कहो, पूछो न कुछ | + | मत कहो, पूछो न कुछ |
− | देखो न कैसी | + | देखो न कैसी मौन। |
विमल राका मूर्ति बन कर | विमल राका मूर्ति बन कर | ||
पंक्ति 239: | पंक्ति 239: | ||
विभव मतवाली प्रकृति का | विभव मतवाली प्रकृति का | ||
− | आवरण वह | + | आवरण वह नील। |
शिथिल है, जिस पर बिखरता | शिथिल है, जिस पर बिखरता | ||
− | प्रचुर मंगल | + | प्रचुर मंगल खील। |
राशि-राशि नखत-कुसुम की | राशि-राशि नखत-कुसुम की | ||
− | अर्चना | + | अर्चना अश्रांत। |
बिखरती है, तामरस | बिखरती है, तामरस | ||
पंक्ति 257: | पंक्ति 257: | ||
मनु निखरने लगे | मनु निखरने लगे | ||
− | ज्यों-ज्यों यामिनी का | + | ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप। |
− | वह अनंत | + | वह अनंत प्रगाढ़ |
− | छाया फैलती | + | छाया फैलती अपरूप। |
बरसता था मदिर कण-सा | बरसता था मदिर कण-सा | ||
− | स्वच्छ सतत | + | स्वच्छ सतत अनंत। |
मिलन का संगीत | मिलन का संगीत | ||
पंक्ति 273: | पंक्ति 273: | ||
− | छूटती | + | छूटती चिंगारियाँ |
उत्तेजना उद्भ्रांत। | उत्तेजना उद्भ्रांत। | ||
− | धधकती ज्वाला मधुर | + | धधकती ज्वाला मधुर |
था वक्ष विकल अशांत। | था वक्ष विकल अशांत। | ||
पंक्ति 284: | पंक्ति 284: | ||
वातचक्र समान कुछ | वातचक्र समान कुछ | ||
− | था बाँधता | + | था बाँधता आवेश। |
धैर्य का कुछ भी न | धैर्य का कुछ भी न | ||
पंक्ति 293: | पंक्ति 293: | ||
कर पकड़ उन्मुक्त से | कर पकड़ उन्मुक्त से | ||
− | हो लगे कहने "आज, | + | हो लगे कहने "आज, |
देखता हूँ दूसरा कुछ | देखता हूँ दूसरा कुछ | ||
पंक्ति 311: | पंक्ति 311: | ||
जन्म संगिनी एक थी | जन्म संगिनी एक थी | ||
− | जो कामबाला | + | जो कामबाला नाम। |
− | मधुर श्रद्धा | + | मधुर श्रद्धा, था |
− | हमारे प्राण को | + | हमारे प्राण को विश्राम। |
− | सतत मिलता था उसी से | + | सतत मिलता था उसी से |
− | अरे जिसको | + | अरे जिसको फूल। |
दिया करते अर्ध में | दिया करते अर्ध में | ||
पंक्ति 327: | पंक्ति 327: | ||
− | प्रलय | + | प्रलय में भी बच रहे हम |
− | फिर मिलन का | + | फिर मिलन का मोद। |
− | रहा मिलने को बचा | + | रहा मिलने को बचा |
सूने जगत की गोद। | सूने जगत की गोद। | ||
पंक्ति 338: | पंक्ति 338: | ||
ज्योत्स्ना सी निकल आई! | ज्योत्स्ना सी निकल आई! | ||
− | पार कर | + | पार कर नीहार। |
प्रणय-विधु है खड़ा | प्रणय-विधु है खड़ा | ||
पंक्ति 347: | पंक्ति 347: | ||
कुटिल कुतंक से बनाती | कुटिल कुतंक से बनाती | ||
− | कालमाया | + | कालमाया जाल। |
नीलिमा से नयन की | नीलिमा से नयन की | ||
पंक्ति 354: | पंक्ति 354: | ||
− | नींद-सी दुर्भेद्य तम की | + | नींद-सी दुर्भेद्य तम की |
− | फेंकती यह | + | फेंकती यह दृष्टि। |
स्वप्न-सी है बिखर जाती | स्वप्न-सी है बिखर जाती | ||
पंक्ति 365: | पंक्ति 365: | ||
हुई केंद्रीभूत-सी है | हुई केंद्रीभूत-सी है | ||
− | साधना की | + | साधना की स्फूर्ति। |
दृढ-सकल सुकुमारता में | दृढ-सकल सुकुमारता में | ||
− | रम्य नारी- | + | रम्य नारी-मूर्ति। |
दिवाकर दिन या परिश्रम | दिवाकर दिन या परिश्रम | ||
− | का विकल | + | का विकल विश्रांत। |
− | मैं | + | मैं पुरुष, शिशु सा भटकता |
आज तक था भ्रांत। | आज तक था भ्रांत। | ||
पंक्ति 383: | पंक्ति 383: | ||
चंद्र की विश्राम राका | चंद्र की विश्राम राका | ||
− | बालिका-सी | + | बालिका-सी कांत। |
विजयनी सी दीखती | विजयनी सी दीखती | ||
पंक्ति 392: | पंक्ति 392: | ||
पददलित सी थकी | पददलित सी थकी | ||
− | व्रज्या ज्यों सदा | + | व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत। |
शस्य-श्यामल भूमि में | शस्य-श्यामल भूमि में | ||
पंक्ति 401: | पंक्ति 401: | ||
आह! वैसा ही हृदय का | आह! वैसा ही हृदय का | ||
− | बन रहा | + | बन रहा परिणाम। |
पा रहा आज देकर | पा रहा आज देकर | ||
पंक्ति 417: | पंक्ति 417: | ||
− | धूम-लतिका सी गगन- | + | धूम-लतिका सी गगन-तरु |
− | पर न चढती | + | पर न चढती दीन। |
दबी शिशिर-निशीथ में | दबी शिशिर-निशीथ में | ||
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झुक चली सव्रीड | झुक चली सव्रीड | ||
− | वह सुकुमारता के | + | वह सुकुमारता के भार। |
− | लद गई पाकर | + | लद गई पाकर पुरुष का |
नर्ममय उपचार। | नर्ममय उपचार। | ||
पंक्ति 437: | पंक्ति 437: | ||
और वह नारीत्व का जो | और वह नारीत्व का जो | ||
− | मूल मधु | + | मूल मधु अनुभाव। |
आज जैसे हँस रहा | आज जैसे हँस रहा | ||
पंक्ति 446: | पंक्ति 446: | ||
मधुर व्रीडा-मिश्र | मधुर व्रीडा-मिश्र | ||
− | चिंता साथ ले | + | चिंता साथ ले उल्लास। |
हृदय का आनंद-कूज़न | हृदय का आनंद-कूज़न | ||
पंक्ति 453: | पंक्ति 453: | ||
− | गिर रहीं पलकें | + | गिर रहीं पलकें |
− | झुकी थी नासिका की | + | झुकी थी नासिका की नोक। |
भ्रूलता थी कान तक | भ्रूलता थी कान तक | ||
पंक्ति 464: | पंक्ति 464: | ||
स्पर्श करने लगी लज्जा | स्पर्श करने लगी लज्जा | ||
− | ललित कर्ण | + | ललित कर्ण कपोल। |
खिला पुलक कदंब सा | खिला पुलक कदंब सा | ||
पंक्ति 475: | पंक्ति 475: | ||
समर्पण आज का हे देव! | समर्पण आज का हे देव! | ||
− | बनेगा-चिर-बंध | + | बनेगा-चिर-बंध |
नारी-हृदय-हेतु-सदैव। | नारी-हृदय-हेतु-सदैव। |
20:22, 13 फ़रवरी 2015 का अवतरण
"कालिमा धुलने लगी
घुलने लगा आलोक।
इसी निभृत अनंत में
बसने लगा अब लोक।
इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुस्कान।
देख कर सब भूल जायें
दुःख के अनुमान।
देख लो, ऊँचे शिखर का
व्योम-चुबंन-व्यस्त।
लौटना अंतिम किरण का
और होना अस्त।
चलो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज।
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,
साधना का राज़।"
सृष्टि हँसने लगी
आँखों में खिला अनुराग।
राग-रंजित चंद्रिका थी
उड़ा सुमन-पराग।
और हँसता था अतिथि
मनु का पकड़कर हाथ।
चले दोनों स्वप्न-पथ में
स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निकुंज गह्वर
सब सुधा में स्नात।
सब मनाते एक उत्सव
जागरण की रात।
आ रही थी मदिर भीनी
माधवी की गंध।
पवन के घन घिरे पड़ते थे
बने मधु-अंध।
शिथिल अलसाई पड़ी
छाया निशा की कांत।
सो रही थी शिशिर कण की
सेज़ पर विश्रांत।
उसी झुरमुट में हृदय की
भावना थी भ्रांत।
जहाँ छाया सृजन करती
थी कुतूहल कांत।
कहा मनु ने "तुम्हें देखा
अतिथि! कितनी बार।
किंतु इतने तो न थे
तुम दबे छवि के भार!
पूर्व-जन्म कहूँ कि था
स्पृहणीय मधुर अतीत।
गूँजते जब मदिर घन में
वासना के गीत।
भूल कर जिस दृश्य को
मैं बना आज़ अचेत।
वही कुछ सव्रीड
सस्मित कर रहा संकेत।
"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"
यही सुदृढ विचार।
चेतना का परिधि
बनता घूम चक्राकार।
मधु बरसती विधु किरण
है काँपती सुकुमार?
पवन में है पुलक
मथंर चल रहा मधु-भार।
तुम समीप, अधीर
इतने आज क्यों हैं प्राण?
छक रहा है किस सुरभी से
तृप्त होकर घ्राण?
आज क्यों संदेह होता
रूठने का व्यर्थ।
क्यों मनाना चाहता-सा
बन रहा था असमर्थ।
धमनियों में वेदना
सा रक्त का संचार।
हृदय में है काँपती
धड़कन, लिये लघु भार।
चेतना रंगीन ज्वाला
परिधि में सानंद।
मानती-सी दिव्य-सुख
कुछ गा रही है छंद।
अग्निकीट समान जलती
है भरी उत्साह,
और जीवित है
न छाले हैं न उसमें दाह।
कौन हो तुम-माया
कुहुक-सी साकार।
प्राण-सत्ता के मनोहर
भेद-सी सुकुमार!
हृदय जिसकी कांत छाया
में लिये निश्वास।
थके पथिक समान करता
व्यजन ग्लानि विनाश।"
श्याम-नभ में मधु-किरण-सा
फिर वही मृदु हास।
सिंधु की हिलकोर
दक्षिण का समीर-विलास!
कुंज में गुँजरित
कोई मुकुल सा अव्यक्त।
लगा कहने अतिथि
मनु थे सुन रहे अनुरक्त।
"यह अतृप्ति अधीर मन की
क्षोभयुक्त उन्माद।
सखे! तुमुल-तरंग-सा
उच्छवासमय संवाद।
मत कहो, पूछो न कुछ
देखो न कैसी मौन।
विमल राका मूर्ति बन कर
स्तब्ध बैठा कौन?
विभव मतवाली प्रकृति का
आवरण वह नील।
शिथिल है, जिस पर बिखरता
प्रचुर मंगल खील।
राशि-राशि नखत-कुसुम की
अर्चना अश्रांत।
बिखरती है, तामरस
सुंदर चरण के प्रांत।"
मनु निखरने लगे
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप।
वह अनंत प्रगाढ़
छाया फैलती अपरूप।
बरसता था मदिर कण-सा
स्वच्छ सतत अनंत।
मिलन का संगीत
होने लगा था श्रीमंत।
छूटती चिंगारियाँ
उत्तेजना उद्भ्रांत।
धधकती ज्वाला मधुर
था वक्ष विकल अशांत।
वातचक्र समान कुछ
था बाँधता आवेश।
धैर्य का कुछ भी न
मनु के हृदय में था लेश।
कर पकड़ उन्मुक्त से
हो लगे कहने "आज,
देखता हूँ दूसरा कुछ
मधुरिमामय साज!
वही छवि! हाँ वही जैसे!
किंतु क्या यह भूल?
रही विस्मृति-सिंधु में
स्मृति-नाव विकल अकूल।
जन्म संगिनी एक थी
जो कामबाला नाम।
मधुर श्रद्धा, था
हमारे प्राण को विश्राम।
सतत मिलता था उसी से
अरे जिसको फूल।
दिया करते अर्ध में
मकरंद सुषमा-मूल।
प्रलय में भी बच रहे हम
फिर मिलन का मोद।
रहा मिलने को बचा
सूने जगत की गोद।
ज्योत्स्ना सी निकल आई!
पार कर नीहार।
प्रणय-विधु है खड़ा
नभ में लिये तारक हार।
कुटिल कुतंक से बनाती
कालमाया जाल।
नीलिमा से नयन की
रचती तमिसा माल।
नींद-सी दुर्भेद्य तम की
फेंकती यह दृष्टि।
स्वप्न-सी है बिखर जाती
हँसी की चल-सृष्टि।
हुई केंद्रीभूत-सी है
साधना की स्फूर्ति।
दृढ-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्ति।
दिवाकर दिन या परिश्रम
का विकल विश्रांत।
मैं पुरुष, शिशु सा भटकता
आज तक था भ्रांत।
चंद्र की विश्राम राका
बालिका-सी कांत।
विजयनी सी दीखती
तुम माधुरी-सी शांत।
पददलित सी थकी
व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत।
शस्य-श्यामल भूमि में
होती समाप्त अशांत।
आह! वैसा ही हृदय का
बन रहा परिणाम।
पा रहा आज देकर
तुम्हीं से निज़ काम।
आज ले लो चेतना का
यह समर्पण दान।
विश्व-रानी! सुंदरी नारी!
जगत की मान!"
धूम-लतिका सी गगन-तरु
पर न चढती दीन।
दबी शिशिर-निशीथ में
ज्यों ओस-भार नवीन।
झुक चली सव्रीड
वह सुकुमारता के भार।
लद गई पाकर पुरुष का
नर्ममय उपचार।
और वह नारीत्व का जो
मूल मधु अनुभाव।
आज जैसे हँस रहा
भीतर बढ़ाता चाव।
मधुर व्रीडा-मिश्र
चिंता साथ ले उल्लास।
हृदय का आनंद-कूज़न
लगा करने रास।
गिर रहीं पलकें
झुकी थी नासिका की नोक।
भ्रूलता थी कान तक
चढ़ती रही बेरोक।
स्पर्श करने लगी लज्जा
ललित कर्ण कपोल।
खिला पुलक कदंब सा
था भरा गदगद बोल।
किन्तु बोली "क्या
समर्पण आज का हे देव!
बनेगा-चिर-बंध
नारी-हृदय-हेतु-सदैव।
आह मैं दुर्बल, कहो
क्या ले सकूँगी दान!
वह, जिसे उपभोग करने में
विकल हों प्रान?"