"लज्जा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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− | बिखरें जिसके अभिनंदन | + | बिखरें जिसके अभिनंदन में। |
मकरंद मिलाती हों अपना | मकरंद मिलाती हों अपना | ||
− | स्वागत के कुंकुम चंदन | + | स्वागत के कुंकुम चंदन में। |
कोमल किसलय मर्मर-रव-से | कोमल किसलय मर्मर-रव-से | ||
− | जिसका जयघोष सुनाते | + | जिसका जयघोष सुनाते हों। |
जिसमें दुख-सुख मिलकर | जिसमें दुख-सुख मिलकर | ||
− | मन के उत्सव आनंद मनाते | + | मन के उत्सव आनंद मनाते हों। |
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− | मैं उसी चपल की धात्री हूँ | + | मैं उसी चपल की धात्री हूँ |
− | गौरव महिमा हूँ | + | गौरव महिमा हूँ सिखलाती। |
ठोकर जो लगने वाली है | ठोकर जो लगने वाली है | ||
− | उसको धीरे से | + | उसको धीरे से समझाती। |
मैं देव-सृष्टि की रति-रानी | मैं देव-सृष्टि की रति-रानी | ||
− | निज पंचबाण से वंचित | + | निज पंचबाण से वंचित हो। |
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना | बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना | ||
− | अपनी अतृप्ति-सी संचित | + | अपनी अतृप्ति-सी संचित हो। |
अवशिष्ट रह गई अनुभव में | अवशिष्ट रह गई अनुभव में | ||
− | अपनी अतीत असफलता- | + | अपनी अतीत असफलता-सी। |
लीला विलास की खेद-भरी | लीला विलास की खेद-भरी | ||
− | अवसादमयी श्रम-दलिता- | + | अवसादमयी श्रम-दलिता-सी। |
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ | मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ | ||
− | मैं शालीनता सिखाती | + | मैं शालीनता सिखाती हूँ। |
मतवाली सुंदरता पग में | मतवाली सुंदरता पग में | ||
− | नूपुर सी लिपट मनाती | + | नूपुर सी लिपट मनाती हूँ। |
लाली बन सरल कपोलों में | लाली बन सरल कपोलों में | ||
− | आँखों में अंजन सी | + | आँखों में अंजन सी लगती। |
कुंचित अलकों सी घुंघराली | कुंचित अलकों सी घुंघराली | ||
− | मन की मरोर बनकर | + | मन की मरोर बनकर जगती। |
− | चंचल किशोर सुंदरता की | + | चंचल किशोर सुंदरता की |
− | करती रहती | + | मैं करती रहती रखवाली। |
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ | मैं वह हलकी सी मसलन हूँ | ||
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यह आज समझ तो पाई हूँ | यह आज समझ तो पाई हूँ | ||
− | मैं दुर्बलता में नारी | + | मैं दुर्बलता में नारी हूँ। |
अवयव की सुंदर कोमलता | अवयव की सुंदर कोमलता | ||
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अपना ही होता जाता है, | अपना ही होता जाता है, | ||
− | घनश्याम-खंड-सी आँखों में | + | घनश्याम-खंड-सी आँखों में |
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− | सहसा जल भर आता है? | + | क्यों सहसा जल भर आता है? |
सर्वस्व-समर्पण करने की | सर्वस्व-समर्पण करने की | ||
− | विश्वास-महा-तरू-छाया | + | विश्वास-महा-तरू-छाया में। |
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों | चुपचाप पड़ी रहने की क्यों | ||
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छायापथ में तारक-द्युति सी | छायापथ में तारक-द्युति सी | ||
− | झिलमिल करने की मधु- | + | झिलमिल करने की मधु-लीला। |
अभिनय करती क्यों इस मन में | अभिनय करती क्यों इस मन में | ||
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निस्संबल होकर तिरती हूँ | निस्संबल होकर तिरती हूँ | ||
− | इस मानस की गहराई | + | इस मानस की गहराई में। |
चाहती नहीं जागरण कभी | चाहती नहीं जागरण कभी | ||
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− | नारी जीवन का चित्र यही क्या? | + | नारी जीवन का चित्र यही, क्या? |
विकल रंग भर देती हो, | विकल रंग भर देती हो, | ||
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रूकती हूँ और ठहरती हूँ | रूकती हूँ और ठहरती हूँ | ||
− | पर सोच-विचार न कर | + | पर सोच-विचार न कर सकती। |
पगली सी कोई अंतर में | पगली सी कोई अंतर में | ||
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मैं जब भी तोलने का करती | मैं जब भी तोलने का करती | ||
− | उपचार स्वयं तुल जाती | + | उपचार स्वयं तुल जाती हूँ। |
− | भुजलता फँसा कर नर- | + | भुजलता फँसा कर नर-तरु से |
झूले सी झोंके खाती हूँ। | झूले सी झोंके खाती हूँ। | ||
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इस अर्पण में कुछ और नहीं | इस अर्पण में कुछ और नहीं | ||
− | केवल उत्सर्ग छलकता | + | केवल उत्सर्ग छलकता है। |
− | मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ | + | मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ |
इतना ही सरल झलकता है।" | इतना ही सरल झलकता है।" | ||
− | " क्या कहती हो ठहरो नारी! | + | "क्या कहती हो ठहरो नारी! |
− | संकल्प अश्रु-जल-से- | + | संकल्प अश्रु-जल-से-अपने। |
तुम दान कर चुकी पहले ही | तुम दान कर चुकी पहले ही | ||
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नारी! तुम केवल श्रद्धा हो | नारी! तुम केवल श्रद्धा हो | ||
− | विश्वास-रजत-नग पगतल | + | विश्वास-रजत-नग पगतल में। |
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो | पीयूष-स्रोत-सी बहा करो | ||
पंक्ति 194: | पंक्ति 194: | ||
देवों की विजय, दानवों की | देवों की विजय, दानवों की | ||
− | हारों का होता-युद्ध | + | हारों का होता-युद्ध रहा। |
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित | संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित | ||
पंक्ति 201: | पंक्ति 201: | ||
− | आँसू से भींगे अंचल पर | + | आँसू से भींगे अंचल पर |
− | + | ||
− | सब कुछ रखना होगा- | + | मन का सब कुछ रखना होगा- |
तुमको अपनी स्मित रेखा से | तुमको अपनी स्मित रेखा से | ||
यह संधिपत्र लिखना होगा। | यह संधिपत्र लिखना होगा। |
19:46, 15 फ़रवरी 2015 का अवतरण
"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।
कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।
उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।
मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।
मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।
अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।
लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।
चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"
"हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है?
यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है?
सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में।
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में?
छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला।
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीहता श्रम-शीला?
निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में।
चाहती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में।
नारी जीवन का चित्र यही, क्या?
विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।
रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती।
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती।
मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ।
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।"
"क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
रह नित्य-विरूद्ध रहा।
आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।