"कर्म / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
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पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
हुए अग्रसर से मार्ग में | हुए अग्रसर से मार्ग में | ||
− | छुटे-तीर-से-फिर | + | छुटे-तीर-से-फिर वे। |
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से | यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 23: | ||
भरा कान में कथन काम का | भरा कान में कथन काम का | ||
− | मन में नव | + | मन में नव अभिलाषा। |
लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित | लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
ललक रही थी ललित लालसा | ललक रही थी ललित लालसा | ||
− | सोमपान की | + | सोमपान की प्यासी। |
जीवन के उस दीन विभव में | जीवन के उस दीन विभव में | ||
पंक्ति 41: | पंक्ति 41: | ||
जीवन की अभिराम साधना | जीवन की अभिराम साधना | ||
− | भर उत्साह खड़ी | + | भर उत्साह खड़ी थी। |
− | ज्यों प्रतिकूल पवन में | + | ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी |
− | + | गहरे लौट पड़ी थी। | |
− | श्रद्धा के उत्साह वचन, | + | श्रद्धा के उत्साह वचन, फिर |
− | + | काम प्रेरणा-मिल के। | |
भ्रांत अर्थ बन आगे आये | भ्रांत अर्थ बन आगे आये | ||
पंक्ति 57: | पंक्ति 57: | ||
− | बन जाता सिद्धांत प्रथम | + | बन जाता सिद्धांत प्रथम, फिर |
− | + | पुष्टि हुआ करती है। | |
बुद्धि उसी ऋण को सबसे | बुद्धि उसी ऋण को सबसे | ||
पंक्ति 68: | पंक्ति 68: | ||
मन जब निश्चित सा कर लेता | मन जब निश्चित सा कर लेता | ||
− | कोई मत है | + | कोई मत है अपना। |
बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का | बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का | ||
पंक्ति 86: | पंक्ति 86: | ||
सदा समर्थन करती उसकी | सदा समर्थन करती उसकी | ||
− | तर्कशास्त्र की | + | तर्कशास्त्र की पीढ़ी। |
− | "ठीक यही है सत्य! | + | "ठीक यही है सत्य! यही है |
− | + | उन्नति सुख की सीढ़ी। | |
− | और सत्य ! यह एक शब्द | + | और सत्य! यह एक शब्द, तू |
− | + | कितना गहन हुआ है? | |
मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का | मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का | ||
पंक्ति 104: | पंक्ति 104: | ||
सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी | सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी | ||
− | रट-सी लगी हुई | + | रट-सी लगी हुई है। |
− | किन्तु स्पर्श से तर्क-करो | + | किन्तु स्पर्श से तर्क-करो, क्यों |
− | + | बनता 'छुईमुई' है। | |
असुर पुरोहित उस विपल्व से | असुर पुरोहित उस विपल्व से | ||
− | बचकर भटक रहे | + | बचकर भटक रहे थे। |
− | वे किलात-आकुलि थे | + | वे किलात-आकुलि थे जिसने |
− | + | कष्ट अनेक सहे थे। | |
− | देख-देख कर मनु का पशु, | + | देख-देख कर मनु का पशु, जो |
− | + | व्याकुल चंचल रहती। | |
उनकी आमिष-लोलुप-रसना | उनकी आमिष-लोलुप-रसना | ||
पंक्ति 129: | पंक्ति 129: | ||
− | 'क्यों किलात ! खाते-खाते तृण | + | 'क्यों किलात! खाते-खाते तृण |
− | और कहाँ तक | + | और कहाँ तक जीऊँ। |
− | कब तक मैं देखूँ जीवित | + | कब तक मैं देखूँ जीवित पशु |
− | + | घूँट लहू का पीऊँ? | |
− | क्या कोई इसका उपाय | + | क्या कोई इसका उपाय ही |
− | + | नहीं कि इसको खाऊँ? | |
बहुत दिनों पर एक बार तो | बहुत दिनों पर एक बार तो | ||
पंक्ति 149: | पंक्ति 149: | ||
आकुलि ने तब कहा- | आकुलि ने तब कहा- | ||
− | 'देखते नहीं साथ में | + | 'देखते नहीं साथ में उसके। |
एक मृदुलता की, ममता की | एक मृदुलता की, ममता की | ||
पंक्ति 156: | पंक्ति 156: | ||
− | अंधकार को दूर भगाती वह | + | अंधकार को दूर भगाती, वह |
− | आलोक किरण- | + | आलोक किरण-सी। |
मेरी माया बिंध जाती है | मेरी माया बिंध जाती है | ||
पंक्ति 165: | पंक्ति 165: | ||
− | तो भी चलो आज़ कुछ | + | तो भी चलो आज़ कुछ करके |
− | + | तब मैं स्वस्थ रहूँगा, | |
या जो भी आवेंगे सुख-दुख | या जो भी आवेंगे सुख-दुख | ||
पंक्ति 174: | पंक्ति 174: | ||
− | यों हीं दोनों कर विचार | + | यों हीं दोनों कर विचार, उस |
− | + | कुंज़ द्वार पर आये। | |
जहाँ सोचते थे मनु बैठे | जहाँ सोचते थे मनु बैठे | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
"कर्म-यज्ञ से जीवन के | "कर्म-यज्ञ से जीवन के | ||
− | सपनों का स्वर्ग | + | सपनों का स्वर्ग मिलेगा। |
इसी विपिन में मानस की | इसी विपिन में मानस की | ||
पंक्ति 194: | पंक्ति 194: | ||
किंतु बनेगा कौन पुरोहित | किंतु बनेगा कौन पुरोहित | ||
− | अब यह प्रश्न नया | + | अब यह प्रश्न नया है। |
किस विधान से करूँ यज्ञ | किस विधान से करूँ यज्ञ | ||
पंक्ति 203: | पंक्ति 203: | ||
श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी | श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी | ||
− | वह अनंत | + | वह अनंत अभिलाषा। |
− | फिर इस निर्ज़न में खोज़े | + | फिर इस निर्ज़न में खोज़े अब |
− | + | किसको मेरी आशा। | |
कहा असुर मित्रों ने अपना | कहा असुर मित्रों ने अपना | ||
− | मुख गंभीर | + | मुख गंभीर बनाये। |
जिनके लिये यज्ञ होगा | जिनके लिये यज्ञ होगा | ||
पंक्ति 219: | पंक्ति 219: | ||
− | यज़न करोगे क्या तुम? | + | यज़न करोगे क्या तुम? फिर यह |
− | + | किसको खोज़ रहे हो? | |
अरे पुरोहित की आशा में | अरे पुरोहित की आशा में | ||
पंक्ति 228: | पंक्ति 228: | ||
− | इस जगती के प्रतिनिधि | + | इस जगती के प्रतिनिधि, जिनसे |
− | + | प्रकट निशीथ सवेरा। | |
"मित्र-वरुण जिनकी छाया है | "मित्र-वरुण जिनकी छाया है | ||
पंक्ति 239: | पंक्ति 239: | ||
वे पथ-दर्शक हों सब | वे पथ-दर्शक हों सब | ||
− | विधि पूरी होगी | + | विधि पूरी होगी मेरी। |
चलो आज़ फिर से वेदी पर | चलो आज़ फिर से वेदी पर | ||
पंक्ति 248: | पंक्ति 248: | ||
"परंपरागत कर्मों की वे | "परंपरागत कर्मों की वे | ||
− | कितनी सुंदर | + | कितनी सुंदर लड़ियाँ। |
जिनमें-साधन की उलझी हैं | जिनमें-साधन की उलझी हैं | ||
− | जिसमें सुख की | + | जिसमें सुख की घड़ियाँ।------------------------------------ |
जिनमें है प्रेरणामयी-सी | जिनमें है प्रेरणामयी-सी | ||
− | संचित कितनी | + | संचित कितनी कृतियाँ। |
पुलकभरी सुख देने वाली | पुलकभरी सुख देने वाली | ||
पंक्ति 266: | पंक्ति 266: | ||
साधारण से कुछ अतिरंजित | साधारण से कुछ अतिरंजित | ||
− | गति में मधुर त्वरा- | + | गति में मधुर त्वरा-सी। |
− | उत्सव-लीला, | + | उत्सव-लीला, निर्जनता की |
जिससे कटे उदासी। | जिससे कटे उदासी। | ||
पंक्ति 277: | पंक्ति 277: | ||
होगा श्रद्धा को भी।" | होगा श्रद्धा को भी।" | ||
− | प्रसन्नता से नाच उठा | + | प्रसन्नता से नाच उठा, मन |
− | + | नूतनता का लोभी। | |
यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी | यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी | ||
− | धधक रही थी | + | धधक रही थी ज्वाला। |
दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे | दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे | ||
पंक्ति 292: | पंक्ति 292: | ||
− | वेदी की निर्मम-प्रसन्नता | + | वेदी की निर्मम-प्रसन्नता |
− | पशु की कातर | + | पशु की कातर वाणी। |
− | सोम-पात्र भी भरा | + | सोम-पात्र भी भरा |
− | धरा था पुरोडाश भी आगे। | + | धरा था पुरोडाश भी आगे।--------------------------------- |
"जिसका था उल्लास निरखना | "जिसका था उल्लास निरखना | ||
− | वही अलग जा | + | वही अलग जा बैठी। |
यह सब क्यों फिर दृप्त वासना | यह सब क्यों फिर दृप्त वासना | ||
पंक्ति 310: | पंक्ति 310: | ||
− | जिसमें जीवन का संचित | + | जिसमें जीवन का संचित सुख |
− | + | सुंदर मूर्त बना है। | |
हृदय खोलकर कैसे उसको | हृदय खोलकर कैसे उसको | ||
पंक्ति 321: | पंक्ति 321: | ||
वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ | वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ | ||
− | इसमें सुनिहित | + | इसमें सुनिहित होगा। |
− | आज़ वही पशु मर कर भी | + | आज़ वही पशु मर कर भी क्या |
− | + | सुख में बाधक होगा? | |
− | श्रद्धा रूठ गयी तो फिर | + | श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या |
− | + | उसे मनाना होगा? | |
या वह स्वंय मान जायेगी, | या वह स्वंय मान जायेगी, | ||
पंक्ति 340: | पंक्ति 340: | ||
पुरोडाश के साथ सोम का | पुरोडाश के साथ सोम का | ||
− | पान लगे मनु | + | पान लगे मनु करने। |
लगे प्राण के रिक्त अंश को | लगे प्राण के रिक्त अंश को | ||
पंक्ति 349: | पंक्ति 349: | ||
संध्या की धूसर छाया में | संध्या की धूसर छाया में | ||
− | शैल श्रृंग की | + | शैल श्रृंग की रेखा। |
अंकित थी दिगंत अंबर में | अंकित थी दिगंत अंबर में | ||
पंक्ति 358: | पंक्ति 358: | ||
श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में | श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में | ||
− | दुखी लौट कर | + | दुखी लौट कर आयी। |
एक विरक्ति-बोझ सी ढोती | एक विरक्ति-बोझ सी ढोती | ||
पंक्ति 367: | पंक्ति 367: | ||
सूखी काष्ठ संधि में पतली | सूखी काष्ठ संधि में पतली | ||
− | अनल शिखा जलती | + | अनल शिखा जलती थी। |
− | उस धुँधले गुह में आभा से | + | उस धुँधले गुह में आभा से |
तामस को छलती सी। | तामस को छलती सी। | ||
पंक्ति 376: | पंक्ति 376: | ||
किंतु कभी बुझ जाती पाकर | किंतु कभी बुझ जाती पाकर | ||
− | शीत पवन के | + | शीत पवन के झोंके। |
कभी उसी से जल उठती | कभी उसी से जल उठती | ||
पंक्ति 385: | पंक्ति 385: | ||
कामायनी पड़ी थी अपना | कामायनी पड़ी थी अपना | ||
− | कोमल चर्म बिछा | + | कोमल चर्म बिछा के। |
श्रम मानो विश्राम कर रहा | श्रम मानो विश्राम कर रहा | ||
पंक्ति 394: | पंक्ति 394: | ||
धीरे-धीरे जगत चल रहा | धीरे-धीरे जगत चल रहा | ||
− | अपने उस ऋज़ुपथ | + | अपने उस ऋज़ुपथ में। |
− | धीरे- | + | धीरे-धीरे खिलते तारे |
मृग जुतते विधुरथ में। | मृग जुतते विधुरथ में। | ||
पंक्ति 403: | पंक्ति 403: | ||
अंचल लटकाती निशीथिनी | अंचल लटकाती निशीथिनी | ||
− | अपना ज्योत्स्ना- | + | अपना ज्योत्स्ना-शाली। |
जिसकी छाया में सुख पावे | जिसकी छाया में सुख पावे | ||
पंक्ति 412: | पंक्ति 412: | ||
उच्च शैल-शिखरों पर हँसती | उच्च शैल-शिखरों पर हँसती | ||
− | प्रकृति चंचल | + | प्रकृति चंचल बाला। |
धवल हँसी बिखराती | धवल हँसी बिखराती | ||
पंक्ति 421: | पंक्ति 421: | ||
जीवन की उद्धाम लालसा | जीवन की उद्धाम लालसा | ||
− | उलझी जिसमें | + | उलझी जिसमें व्रीड़ा। |
एक तीव्र उन्माद और | एक तीव्र उन्माद और | ||
पंक्ति 430: | पंक्ति 430: | ||
मधुर विरक्ति-भरी आकुलता, | मधुर विरक्ति-भरी आकुलता, | ||
− | घिरती हृदय- गगन | + | घिरती हृदय-गगन में। |
अंतर्दाह स्नेह का तब भी | अंतर्दाह स्नेह का तब भी | ||
पंक्ति 439: | पंक्ति 439: | ||
वे असहाय नयन थे | वे असहाय नयन थे | ||
− | खुलते-मुँदते भीषणता | + | खुलते-मुँदते भीषणता में। |
आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था | आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था | ||
पंक्ति 446: | पंक्ति 446: | ||
− | "कितना | + | "कितना दुःख! जिसे मैं चाहूँ |
− | वह कुछ और बना | + | वह कुछ और बना हो। |
मेरा मानस-चित्र खींचना | मेरा मानस-चित्र खींचना | ||
पंक्ति 457: | पंक्ति 457: | ||
जाग उठी है दारुण-ज्वाला | जाग उठी है दारुण-ज्वाला | ||
− | इस अनंत मधुबन | + | इस अनंत मधुबन में। |
कैसे बुझे कौन कह देगा | कैसे बुझे कौन कह देगा | ||
पंक्ति 466: | पंक्ति 466: | ||
यह अंनत अवकाश नीड़-सा | यह अंनत अवकाश नीड़-सा | ||
− | जिसका व्यथित | + | जिसका व्यथित बसेरा। |
वही वेदना सज़ग पलक में | वही वेदना सज़ग पलक में | ||
पंक्ति 475: | पंक्ति 475: | ||
काँप रहें हैं चरण पवन के, | काँप रहें हैं चरण पवन के, | ||
− | विस्तृत नीरवता | + | विस्तृत नीरवता सी। |
धुली जा रही है दिशि-दिशि की | धुली जा रही है दिशि-दिशि की | ||
पंक्ति 484: | पंक्ति 484: | ||
अंतरतम की प्यास | अंतरतम की प्यास | ||
− | विकलता से लिपटी बढ़ती | + | विकलता से लिपटी बढ़ती है। |
युग-युग की असफलता का | युग-युग की असफलता का | ||
पंक्ति 493: | पंक्ति 493: | ||
विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है | विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है | ||
− | अपने ताप विषम | + | अपने ताप विषम से। |
फैल रही है घनी नीलिमा | फैल रही है घनी नीलिमा | ||
पंक्ति 500: | पंक्ति 500: | ||
− | उद्वेलित है उदधि | + | उद्वेलित है उदधि |
− | लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल | + | लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सी। |
चक्रवाल की धुँधली रेखा | चक्रवाल की धुँधली रेखा | ||
पंक्ति 509: | पंक्ति 509: | ||
− | सघन घूम कुँड़ल में | + | सघन घूम कुँड़ल में कैसी |
− | + | नाच रही ये ज्वाला। | |
− | तिमिर फणी पहने है | + | तिमिर फणी पहने है मानों |
− | + | अपने मणि की माला। | |
पंक्ति 521: | पंक्ति 521: | ||
जगती तल का सारा क्रदंन | जगती तल का सारा क्रदंन | ||
− | यह विषमयी | + | यह विषमयी विषमता। |
चुभने वाला अंतरग छल | चुभने वाला अंतरग छल | ||
अति दारुण निर्ममता। | अति दारुण निर्ममता। |
20:15, 15 फ़रवरी 2015 का अवतरण
कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी
सोम लता तब मनु को
चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर
उसने जीवन धनु को।
हुए अग्रसर से मार्ग में
छुटे-तीर-से-फिर वे।
यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से
रह न सके अब थिर वे।
भरा कान में कथन काम का
मन में नव अभिलाषा।
लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित
उमड़ रही थी आशा।
ललक रही थी ललित लालसा
सोमपान की प्यासी।
जीवन के उस दीन विभव में
जैसे बनी उदासी।
जीवन की अभिराम साधना
भर उत्साह खड़ी थी।
ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी
गहरे लौट पड़ी थी।
श्रद्धा के उत्साह वचन, फिर
काम प्रेरणा-मिल के।
भ्रांत अर्थ बन आगे आये
बने ताड़ थे तिल के।
बन जाता सिद्धांत प्रथम, फिर
पुष्टि हुआ करती है।
बुद्धि उसी ऋण को सबसे
ले सदा भरा करती है।
मन जब निश्चित सा कर लेता
कोई मत है अपना।
बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का
सतत निरखता सपना।
पवन वही हिलकोर उठाता
वही तरलता जल में।
वही प्रतिध्वनि अंतर तम की
छा जाती नभ थल में।
सदा समर्थन करती उसकी
तर्कशास्त्र की पीढ़ी।
"ठीक यही है सत्य! यही है
उन्नति सुख की सीढ़ी।
और सत्य! यह एक शब्द, तू
कितना गहन हुआ है?
मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का
पाला हुआ सुआ है।
सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी
रट-सी लगी हुई है।
किन्तु स्पर्श से तर्क-करो, क्यों
बनता 'छुईमुई' है।
असुर पुरोहित उस विपल्व से
बचकर भटक रहे थे।
वे किलात-आकुलि थे जिसने
कष्ट अनेक सहे थे।
देख-देख कर मनु का पशु, जो
व्याकुल चंचल रहती।
उनकी आमिष-लोलुप-रसना
आँखों से कुछ कहती।
'क्यों किलात! खाते-खाते तृण
और कहाँ तक जीऊँ।
कब तक मैं देखूँ जीवित पशु
घूँट लहू का पीऊँ?
क्या कोई इसका उपाय ही
नहीं कि इसको खाऊँ?
बहुत दिनों पर एक बार तो
सुख की बीन बज़ाऊँ।'
आकुलि ने तब कहा-
'देखते नहीं साथ में उसके।
एक मृदुलता की, ममता की
छाया रहती हँस के।
अंधकार को दूर भगाती, वह
आलोक किरण-सी।
मेरी माया बिंध जाती है
जिससे हलके घन-सी।
तो भी चलो आज़ कुछ करके
तब मैं स्वस्थ रहूँगा,
या जो भी आवेंगे सुख-दुख
उनको सहज़ सहूँगा।'
यों हीं दोनों कर विचार, उस
कुंज़ द्वार पर आये।
जहाँ सोचते थे मनु बैठे
मन से ध्यान लगाये।
"कर्म-यज्ञ से जीवन के
सपनों का स्वर्ग मिलेगा।
इसी विपिन में मानस की
आशा का कुसुम खिलेगा।
किंतु बनेगा कौन पुरोहित
अब यह प्रश्न नया है।
किस विधान से करूँ यज्ञ
यह पथ किस ओर गया है?
श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी
वह अनंत अभिलाषा।
फिर इस निर्ज़न में खोज़े अब
किसको मेरी आशा।
कहा असुर मित्रों ने अपना
मुख गंभीर बनाये।
जिनके लिये यज्ञ होगा
हम उनके भेजे आये।
यज़न करोगे क्या तुम? फिर यह
किसको खोज़ रहे हो?
अरे पुरोहित की आशा में
कितने कष्ट सहे हो।
इस जगती के प्रतिनिधि, जिनसे
प्रकट निशीथ सवेरा।
"मित्र-वरुण जिनकी छाया है
यह आलोक-अँधेरा।
वे पथ-दर्शक हों सब
विधि पूरी होगी मेरी।
चलो आज़ फिर से वेदी पर
हो ज्वाला की फेरी।"
"परंपरागत कर्मों की वे
कितनी सुंदर लड़ियाँ।
जिनमें-साधन की उलझी हैं
जिसमें सुख की घड़ियाँ।------------------------------------
जिनमें है प्रेरणामयी-सी
संचित कितनी कृतियाँ।
पुलकभरी सुख देने वाली
बन कर मादक स्मृतियाँ।
साधारण से कुछ अतिरंजित
गति में मधुर त्वरा-सी।
उत्सव-लीला, निर्जनता की
जिससे कटे उदासी।
एक विशेष प्रकार का कुतूहल
होगा श्रद्धा को भी।"
प्रसन्नता से नाच उठा, मन
नूतनता का लोभी।
यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी
धधक रही थी ज्वाला।
दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे
अस्थि खंड की माला।
वेदी की निर्मम-प्रसन्नता
पशु की कातर वाणी।
सोम-पात्र भी भरा
धरा था पुरोडाश भी आगे।---------------------------------
"जिसका था उल्लास निरखना
वही अलग जा बैठी।
यह सब क्यों फिर दृप्त वासना
लगी गरज़ने ऐंठी।
जिसमें जीवन का संचित सुख
सुंदर मूर्त बना है।
हृदय खोलकर कैसे उसको
कहूँ कि वह अपना है।
वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ
इसमें सुनिहित होगा।
आज़ वही पशु मर कर भी क्या
सुख में बाधक होगा?
श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या
उसे मनाना होगा?
या वह स्वंय मान जायेगी,
किस पथ जाना होगा।"
पुरोडाश के साथ सोम का
पान लगे मनु करने।
लगे प्राण के रिक्त अंश को
मादकता से भरने।
संध्या की धूसर छाया में
शैल श्रृंग की रेखा।
अंकित थी दिगंत अंबर में
लिये मलिन शशि-लेखा।
श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में
दुखी लौट कर आयी।
एक विरक्ति-बोझ सी ढोती
मन ही मन बिलखायी।
सूखी काष्ठ संधि में पतली
अनल शिखा जलती थी।
उस धुँधले गुह में आभा से
तामस को छलती सी।
किंतु कभी बुझ जाती पाकर
शीत पवन के झोंके।
कभी उसी से जल उठती
तब कौन उसे फिर रोके?
कामायनी पड़ी थी अपना
कोमल चर्म बिछा के।
श्रम मानो विश्राम कर रहा
मृदु आलस को पा के।
धीरे-धीरे जगत चल रहा
अपने उस ऋज़ुपथ में।
धीरे-धीरे खिलते तारे
मृग जुतते विधुरथ में।
अंचल लटकाती निशीथिनी
अपना ज्योत्स्ना-शाली।
जिसकी छाया में सुख पावे
सृष्टि वेदना वाली।
उच्च शैल-शिखरों पर हँसती
प्रकृति चंचल बाला।
धवल हँसी बिखराती
अपना फैला मधुर उजाला।
जीवन की उद्धाम लालसा
उलझी जिसमें व्रीड़ा।
एक तीव्र उन्माद और
मन मथने वाली पीड़ा।
मधुर विरक्ति-भरी आकुलता,
घिरती हृदय-गगन में।
अंतर्दाह स्नेह का तब भी
होता था उस मन में।
वे असहाय नयन थे
खुलते-मुँदते भीषणता में।
आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था
स्पष्ट कुटिल कटुता में।
"कितना दुःख! जिसे मैं चाहूँ
वह कुछ और बना हो।
मेरा मानस-चित्र खींचना
सुंदर सा सपना हो।
जाग उठी है दारुण-ज्वाला
इस अनंत मधुबन में।
कैसे बुझे कौन कह देगा
इस नीरव निर्ज़न में?
यह अंनत अवकाश नीड़-सा
जिसका व्यथित बसेरा।
वही वेदना सज़ग पलक में
भर कर अलस सवेरा।
काँप रहें हैं चरण पवन के,
विस्तृत नीरवता सी।
धुली जा रही है दिशि-दिशि की
नभ में मलिन उदासी।
अंतरतम की प्यास
विकलता से लिपटी बढ़ती है।
युग-युग की असफलता का
अवलंबन ले चढ़ती है।
विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है
अपने ताप विषम से।
फैल रही है घनी नीलिमा
अंतर्दाह परम-से।
उद्वेलित है उदधि
लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सी।
चक्रवाल की धुँधली रेखा
मानों जाती झुलसी।
सघन घूम कुँड़ल में कैसी
नाच रही ये ज्वाला।
तिमिर फणी पहने है मानों
अपने मणि की माला।
जगती तल का सारा क्रदंन
यह विषमयी विषमता।
चुभने वाला अंतरग छल
अति दारुण निर्ममता।