"कर्म / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
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|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद | ||
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− | जीवन के वे निष्ठुर दंशन | + | "जीवन के वे निष्ठुर दंशन |
− | जिनकी आतुर | + | जिनकी आतुर पीड़ा। |
कलुष-चक्र सी नाच रही है | कलुष-चक्र सी नाच रही है | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
स्खलन चेतना के कौशल का | स्खलन चेतना के कौशल का | ||
− | भूल जिसे कहते | + | भूल जिसे कहते हैं। |
एक बिंदु जिसमें विषाद के | एक बिंदु जिसमें विषाद के | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
− | आह वही अपराध | + | आह वही अपराध |
− | जगत की दुर्बलता की | + | जगत की दुर्बलता की माया। |
− | धरणी की वर्ज़ित मादकता | + | धरणी की वर्ज़ित मादकता |
संचित तम की छाया। | संचित तम की छाया। | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
नील-गरल से भरा हुआ | नील-गरल से भरा हुआ | ||
− | यह चंद्र-कपाल लिये | + | यह चंद्र-कपाल लिये हो। |
इन्हीं निमीलित ताराओं में | इन्हीं निमीलित ताराओं में | ||
पंक्ति 41: | पंक्ति 41: | ||
अखिल विश्च का विष पीते हो | अखिल विश्च का विष पीते हो | ||
− | सृष्टि जियेगी फिर | + | सृष्टि जियेगी फिर से। |
कहो अमरता शीतलता इतनी | कहो अमरता शीतलता इतनी | ||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
अचल अनंत नील लहरों पर | अचल अनंत नील लहरों पर | ||
− | बैठे आसन | + | बैठे आसन मारे। |
− | देव! कौन तुम, | + | देव! कौन तुम, झरते तन से |
− | + | श्रमकण से ये तारे। | |
इन चरणों में कर्म-कुसुम की | इन चरणों में कर्म-कुसुम की | ||
− | अंजलि वे दे | + | अंजलि वे दे सकते। |
चले आ रहे छायापथ में | चले आ रहे छायापथ में | ||
− | लोक-पथिक जो | + | लोक-पथिक जो थकते। |
किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको | किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको | ||
− | स्वीकृति मिली | + | स्वीकृति मिली तुम्हारी। |
लौटाये जाते वे असफल | लौटाये जाते वे असफल | ||
पंक्ति 75: | पंक्ति 75: | ||
− | प्रखर विनाशशील | + | प्रखर विनाशशील नर्तन में |
− | विपुल विश्व की | + | विपुल विश्व की माया। |
− | क्षण-क्षण होती प्रकट | + | क्षण-क्षण होती प्रकट, नवीना |
− | + | बनकर उसकी काया। | |
पंक्ति 122: | पंक्ति 122: | ||
दुर्व्यवहार एक का | दुर्व्यवहार एक का | ||
− | कैसे अन्य भूल | + | कैसे अन्य भूल जावेगा। |
कौ उपाय गरल को कैसे | कौ उपाय गरल को कैसे | ||
पंक्ति 131: | पंक्ति 131: | ||
जाग उठी थी तरल वासना | जाग उठी थी तरल वासना | ||
− | मिली रही | + | मिली रही मादकता। |
− | मनु | + | मनु को कौन वहाँ आने से |
भला रोक अब सकता। | भला रोक अब सकता। | ||
पंक्ति 140: | पंक्ति 140: | ||
खुले मृषण भुज़-मूलों से | खुले मृषण भुज़-मूलों से | ||
− | वह आमंत्रण | + | वह आमंत्रण था मिलता। |
उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख | उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख | ||
पंक्ति 149: | पंक्ति 149: | ||
नीचा हो उठता जो | नीचा हो उठता जो | ||
− | धीमे-धीमे निस्वासों | + | धीमे-धीमे निस्वासों में। |
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा | जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा | ||
पंक्ति 158: | पंक्ति 158: | ||
जागृत था सौंदर्य यद्यपि | जागृत था सौंदर्य यद्यपि | ||
− | वह सोती थी | + | वह सोती थी सुकुमारी। |
रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी | रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी | ||
पंक्ति 167: | पंक्ति 167: | ||
वे मांसल परमाणु किरण से | वे मांसल परमाणु किरण से | ||
− | विद्युत थे | + | विद्युत थे बिखराते। |
अलकों की डोरी में जीवन | अलकों की डोरी में जीवन | ||
पंक्ति 176: | पंक्ति 176: | ||
विगत विचारों के श्रम-सीकर | विगत विचारों के श्रम-सीकर | ||
− | बने हुए थे | + | बने हुए थे मोती। |
मुख मंडल पर करुण कल्पना | मुख मंडल पर करुण कल्पना | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
छूते थे मनु और कटंकित | छूते थे मनु और कटंकित | ||
− | होती थी वह | + | होती थी वह बेली। |
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी | स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी | ||
पंक्ति 194: | पंक्ति 194: | ||
वह पागल सुख इस जगती का | वह पागल सुख इस जगती का | ||
− | आज़ विराट बना | + | आज़ विराट बना था। |
− | अंधकार- मिश्रित प्रकाश का | + | अंधकार-मिश्रित प्रकाश का |
एक वितान तना था। | एक वितान तना था। | ||
पंक्ति 203: | पंक्ति 203: | ||
कामायनी जगी थी कुछ-कुछ | कामायनी जगी थी कुछ-कुछ | ||
− | खोकर सब | + | खोकर सब चेतनता। |
मनोभाव आकार स्वयं हो | मनोभाव आकार स्वयं हो | ||
पंक्ति 212: | पंक्ति 212: | ||
जिसके हृदय सदा समीप है | जिसके हृदय सदा समीप है | ||
− | वही दूर जाता | + | वही दूर जाता है। |
और क्रोध होता उस पर ही | और क्रोध होता उस पर ही | ||
पंक्ति 219: | पंक्ति 219: | ||
− | प्रिय | + | प्रिय को ठुकरा कर भी |
− | मन की माया उलझा | + | मन की माया उलझा लेती। |
प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में | प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में | ||
पंक्ति 230: | पंक्ति 230: | ||
जलदागम-मारुत से कंपित | जलदागम-मारुत से कंपित | ||
− | पल्लव सदृश | + | पल्लव सदृश हथेली। |
श्रद्धा की, धीरे से मनु ने | श्रद्धा की, धीरे से मनु ने | ||
पंक्ति 237: | पंक्ति 237: | ||
− | अनुनय वाणी में | + | अनुनय वाणी में |
− | आँखों में उपालंभ की | + | आँखों में उपालंभ की छाया। |
− | कहने लगे- "अरे यह कैसी | + | कहने लगे-"अरे यह कैसी |
मानवती की माया। | मानवती की माया। | ||
पंक्ति 248: | पंक्ति 248: | ||
स्वर्ग बनाया है जो मैंने | स्वर्ग बनाया है जो मैंने | ||
− | उसे न विफल | + | उसे न विफल बनाओ। |
अरी अप्सरे! उस अतीत के | अरी अप्सरे! उस अतीत के | ||
पंक्ति 257: | पंक्ति 257: | ||
इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित | इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित | ||
− | विद्युत नभ के | + | विद्युत नभ के नीचे। |
केवल हम तुम, और कौन? | केवल हम तुम, और कौन? | ||
पंक्ति 266: | पंक्ति 266: | ||
आकर्षण से भरा विश्व यह | आकर्षण से भरा विश्व यह | ||
− | केवल भोग्य | + | केवल भोग्य हमारा। |
जीवन के दोनों कूलों में | जीवन के दोनों कूलों में | ||
पंक्ति 275: | पंक्ति 275: | ||
श्रम की, इस अभाव की जगती | श्रम की, इस अभाव की जगती | ||
− | उसकी सब | + | उसकी सब आकुलता। |
जिस क्षण भूल सकें हम | जिस क्षण भूल सकें हम | ||
पंक्ति 284: | पंक्ति 284: | ||
वही स्वर्ग की बन अनंतता | वही स्वर्ग की बन अनंतता | ||
− | + | मुसकाता रहता है। | |
दो बूँदों में जीवन का | दो बूँदों में जीवन का | ||
पंक्ति 293: | पंक्ति 293: | ||
देवों को अर्पित मधु-मिश्रित | देवों को अर्पित मधु-मिश्रित | ||
− | सोम, अधर से छू | + | सोम, अधर से छू लो। |
मादकता दोला पर प्रेयसी! | मादकता दोला पर प्रेयसी! | ||
पंक्ति 302: | पंक्ति 302: | ||
श्रद्धा जाग रही थी | श्रद्धा जाग रही थी | ||
− | तब भी छाई थी | + | तब भी छाई थी मादकता। |
मधुर-भाव उसके तन-मन में | मधुर-भाव उसके तन-मन में | ||
पंक्ति 311: | पंक्ति 311: | ||
बोली एक सहज़ मुद्रा से | बोली एक सहज़ मुद्रा से | ||
− | "यह तुम क्या कहते | + | "यह तुम क्या कहते हो। |
आज़ अभी तो किसी भाव की | आज़ अभी तो किसी भाव की | ||
पंक्ति 318: | पंक्ति 318: | ||
− | कल ही यदि | + | कल ही यदि परिवर्तन होगा |
तो फिर कौन बचेगा। | तो फिर कौन बचेगा। | ||
− | क्या जाने | + | क्या जाने कोई साथी |
बन नूतन यज्ञ रचेगा। | बन नूतन यज्ञ रचेगा। | ||
पंक्ति 329: | पंक्ति 329: | ||
और किसी की फिर बलि होगी | और किसी की फिर बलि होगी | ||
− | किसी देव के | + | किसी देव के नाते। |
− | कितना धोखा ! उससे तो हम | + | कितना धोखा! उससे तो हम |
अपना ही सुख पाते। | अपना ही सुख पाते। | ||
पंक्ति 338: | पंक्ति 338: | ||
ये प्राणी जो बचे हुए हैं | ये प्राणी जो बचे हुए हैं | ||
− | इस अचला जगती | + | इस अचला जगती के। |
उनके कुछ अधिकार नहीं | उनके कुछ अधिकार नहीं | ||
पंक्ति 345: | पंक्ति 345: | ||
− | मनु ! क्या यही तुम्हारी होगी | + | मनु! क्या यही तुम्हारी होगी |
− | उज्ज्वल मानवता। | + | उज्ज्वल मानवता।-------------------------------------- |
जिसमें सब कुछ ले लेना हो | जिसमें सब कुछ ले लेना हो | ||
पंक्ति 356: | पंक्ति 356: | ||
"तुच्छ नहीं है अपना सुख भी | "तुच्छ नहीं है अपना सुख भी | ||
− | श्रद्धे ! वह भी कुछ | + | श्रद्धे! वह भी कुछ है। |
दो दिन के इस जीवन का तो | दो दिन के इस जीवन का तो | ||
पंक्ति 365: | पंक्ति 365: | ||
इंद्रिय की अभिलाषा | इंद्रिय की अभिलाषा | ||
− | जितनी सतत सफलता | + | जितनी सतत सफलता पावे। |
जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी | जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी | ||
पंक्ति 374: | पंक्ति 374: | ||
रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में | रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में | ||
− | मृदु | + | मृदु मुसकान खिले तो। |
आशाओं पर श्वास निछावर | आशाओं पर श्वास निछावर | ||
पंक्ति 383: | पंक्ति 383: | ||
विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख | विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख | ||
− | मुकुर बनी रहती | + | मुकुर बनी रहती हो। |
वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है | वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है | ||
पंक्ति 392: | पंक्ति 392: | ||
जिसे खोज़ता फिरता मैं | जिसे खोज़ता फिरता मैं | ||
− | इस हिमगिरि के अंचल | + | इस हिमगिरि के अंचल में। |
वही अभाव स्वर्ग बन | वही अभाव स्वर्ग बन | ||
पंक्ति 401: | पंक्ति 401: | ||
वर्तमान जीवन के सुख से | वर्तमान जीवन के सुख से | ||
− | योग जहाँ होता | + | योग जहाँ होता है। |
छली-अदृष्ट अभाव बना | छली-अदृष्ट अभाव बना | ||
पंक्ति 410: | पंक्ति 410: | ||
किंतु सकल कृतियों की | किंतु सकल कृतियों की | ||
− | अपनी सीमा | + | अपनी सीमा हैं हम ही तो। |
पूरी हो कामना हमारी | पूरी हो कामना हमारी | ||
पंक्ति 419: | पंक्ति 419: | ||
एक अचेतनता लाती सी | एक अचेतनता लाती सी | ||
− | सविनय श्रद्धा | + | सविनय श्रद्धा बोली। |
"बचा जान यह भाव सृष्टि ने | "बचा जान यह भाव सृष्टि ने | ||
− | फिर से | + | फिर से आँखेँ खोलीं। |
भेद-बुद्धि निर्मम ममता की | भेद-बुद्धि निर्मम ममता की | ||
− | समझ, बची ही | + | समझ, बची ही होगी। |
प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी | प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी | ||
पंक्ति 437: | पंक्ति 437: | ||
अपने में सब कुछ भर | अपने में सब कुछ भर | ||
− | कैसे व्यक्ति विकास | + | कैसे व्यक्ति विकास करेगा। |
यह एकांत स्वार्थ भीषण है | यह एकांत स्वार्थ भीषण है | ||
पंक्ति 446: | पंक्ति 446: | ||
औरों को हँसता देखो | औरों को हँसता देखो | ||
− | मनु-हँसो और सुख | + | मनु-हँसो और सुख पाओ। |
अपने सुख को विस्तृत कर लो | अपने सुख को विस्तृत कर लो | ||
पंक्ति 455: | पंक्ति 455: | ||
रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ | रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ | ||
− | यह यज्ञ पुरूष का जो | + | यह यज्ञ पुरूष का जो है। |
संसृति-सेवा भाग हमारा | संसृति-सेवा भाग हमारा | ||
पंक्ति 464: | पंक्ति 464: | ||
सुख को सीमित कर | सुख को सीमित कर | ||
− | अपने में केवल दुख | + | अपने में केवल दुख छोड़ोगे। |
इतर प्राणियों की पीड़ा | इतर प्राणियों की पीड़ा | ||
− | लख अपना | + | लख अपना मुँह मोड़ोगे। |
ये मुद्रित कलियाँ दल में | ये मुद्रित कलियाँ दल में | ||
− | सब सौरभ बंदी कर | + | सब सौरभ बंदी कर लें। |
सरस न हों मकरंद बिंदु से | सरस न हों मकरंद बिंदु से | ||
पंक्ति 482: | पंक्ति 482: | ||
सूखे, झड़े और तब कुचले | सूखे, झड़े और तब कुचले | ||
− | सौरभ को | + | सौरभ को पाओगे। |
फिर आमोद कहाँ से मधुमय | फिर आमोद कहाँ से मधुमय | ||
पंक्ति 491: | पंक्ति 491: | ||
सुख अपने संतोष के लिये | सुख अपने संतोष के लिये | ||
− | संग्रह मूल नहीं | + | संग्रह मूल नहीं है। |
उसमें एक प्रदर्शन | उसमें एक प्रदर्शन | ||
पंक्ति 507: | पंक्ति 507: | ||
− | सुख समीर पाकर | + | सुख समीर पाकर |
− | चाहे हो वह एकांत | + | चाहे हो वह एकांत तुम्हारा। |
बढ़ती है सीमा संसृति की | बढ़ती है सीमा संसृति की | ||
पंक्ति 518: | पंक्ति 518: | ||
हृदय हो रहा था उत्तेज़ित | हृदय हो रहा था उत्तेज़ित | ||
− | बातें कहते- | + | बातें कहते-कहते। |
श्रद्धा के थे अधर सूखते | श्रद्धा के थे अधर सूखते | ||
पंक्ति 525: | पंक्ति 525: | ||
− | उधर सोम का पात्र लिये मनु | + | उधर सोम का पात्र लिये मनु |
समय देखकर बोले- | समय देखकर बोले- | ||
पंक्ति 534: | पंक्ति 534: | ||
− | वही करूँगा जो कहती हो सत्य | + | वही करूँगा जो कहती हो सत्य |
अकेला सुख क्या?" | अकेला सुख क्या?" | ||
− | यह मनुहार | + | यह मनुहार रुकेगा |
प्याला पीने से फिर मुख क्या? | प्याला पीने से फिर मुख क्या? | ||
पंक्ति 544: | पंक्ति 544: | ||
− | + | आँखें प्रिय आँखों में, | |
डूबे अरुण अधर थे रस में। | डूबे अरुण अधर थे रस में। | ||
पंक्ति 555: | पंक्ति 555: | ||
छल-वाणी की वह प्रवंचना | छल-वाणी की वह प्रवंचना | ||
− | हृदयों की शिशुता | + | हृदयों की शिशुता को। |
खेल दिखाती, भुलवाती जो | खेल दिखाती, भुलवाती जो | ||
− | उस निर्मल विभुता | + | उस निर्मल विभुता को। |
जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की | जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की | ||
− | प्रगति दिशा को पल | + | प्रगति दिशा को पल में। |
अपने एक मधुर इंगित से | अपने एक मधुर इंगित से | ||
पंक्ति 573: | पंक्ति 573: | ||
वही शक्ति अवलंब मनोहर | वही शक्ति अवलंब मनोहर | ||
− | निज़ मनु को थी | + | निज़ मनु को थी देती। |
जो अपने अभिनय से | जो अपने अभिनय से | ||
मन को सुख में उलझा लेती। | मन को सुख में उलझा लेती। | ||
+ | |||
"श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी | "श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी | ||
− | यह भव रज़नी | + | यह भव रज़नी भीमा। |
तुम बन जाओ इस ज़ीवन के | तुम बन जाओ इस ज़ीवन के | ||
पंक्ति 590: | पंक्ति 591: | ||
लज्जा का आवरण प्राण को | लज्जा का आवरण प्राण को | ||
− | + | ढक लेता है तम से | |
उसे अकिंचन कर देता है | उसे अकिंचन कर देता है | ||
पंक्ति 599: | पंक्ति 600: | ||
कुचल उठा आनन्द, | कुचल उठा आनन्द, | ||
− | यही है, बाधा, दूर | + | यही है, बाधा, दूर हटाओ। |
अपने ही अनुकूल सुखों को | अपने ही अनुकूल सुखों को | ||
पंक्ति 608: | पंक्ति 609: | ||
और एक फिर व्याकुल चुम्बन | और एक फिर व्याकुल चुम्बन | ||
− | रक्त खौलता | + | रक्त खौलता जिससे। |
शीतल प्राण धधक उठता है | शीतल प्राण धधक उठता है | ||
पंक्ति 617: | पंक्ति 618: | ||
दो काठों की संधि बीच | दो काठों की संधि बीच | ||
− | उस निभृत गुफा में | + | उस निभृत गुफा में अपने। |
− | अग्नि शिखा बुझ गयी | + | अग्नि शिखा बुझ गयी |
जागने पर जैसे सुख सपने। | जागने पर जैसे सुख सपने। |
19:36, 19 फ़रवरी 2015 का अवतरण
"जीवन के वे निष्ठुर दंशन
जिनकी आतुर पीड़ा।
कलुष-चक्र सी नाच रही है
बन आँखों की क्रीड़ा।
स्खलन चेतना के कौशल का
भूल जिसे कहते हैं।
एक बिंदु जिसमें विषाद के
नद उमड़े रहते हैं।
आह वही अपराध
जगत की दुर्बलता की माया।
धरणी की वर्ज़ित मादकता
संचित तम की छाया।
नील-गरल से भरा हुआ
यह चंद्र-कपाल लिये हो।
इन्हीं निमीलित ताराओं में
कितनी शांति पिये हो।
अखिल विश्च का विष पीते हो
सृष्टि जियेगी फिर से।
कहो अमरता शीतलता इतनी
आती तुम्हें किधर से?
अचल अनंत नील लहरों पर
बैठे आसन मारे।
देव! कौन तुम, झरते तन से
श्रमकण से ये तारे।
इन चरणों में कर्म-कुसुम की
अंजलि वे दे सकते।
चले आ रहे छायापथ में
लोक-पथिक जो थकते।
किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको
स्वीकृति मिली तुम्हारी।
लौटाये जाते वे असफल
जैसे नित्य भिखारी।
प्रखर विनाशशील नर्तन में
विपुल विश्व की माया।
क्षण-क्षण होती प्रकट, नवीना
बनकर उसकी काया।
सदा पूर्णता पाने को
सब भूल किया करते क्या?
जीवन में यौवन लाने को
जी-जी कर मरते क्या?
यह व्यापार महा-गतिशाली
कहीं नहीं बसता क्या?
क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल
चुपके से हँसता क्या?
यह विराग संबंध हृदय का
कैसी यह मानवता!
प्राणी को प्राणी के प्रति
बस बची रही निर्ममता
जीवन का संतोष अन्य का
रोदन बन हँसता क्यों?
एक-एक विश्राम प्रगति को
परिकर सा कसता क्यों?
दुर्व्यवहार एक का
कैसे अन्य भूल जावेगा।
कौ उपाय गरल को कैसे
अमृत बना पावेगा"
जाग उठी थी तरल वासना
मिली रही मादकता।
मनु को कौन वहाँ आने से
भला रोक अब सकता।
खुले मृषण भुज़-मूलों से
वह आमंत्रण था मिलता।
उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख
लहरों-सा तिरता।
नीचा हो उठता जो
धीमे-धीमे निस्वासों में।
जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा
हिमकर के हासों में।
जागृत था सौंदर्य यद्यपि
वह सोती थी सुकुमारी।
रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी
आज़ निशा-सी नारी।
वे मांसल परमाणु किरण से
विद्युत थे बिखराते।
अलकों की डोरी में जीवन
कण-कण उलझे जाते।
विगत विचारों के श्रम-सीकर
बने हुए थे मोती।
मुख मंडल पर करुण कल्पना
उनको रही पिरोती।
छूते थे मनु और कटंकित
होती थी वह बेली।
स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी
जो अंग लता सी फैली।
वह पागल सुख इस जगती का
आज़ विराट बना था।
अंधकार-मिश्रित प्रकाश का
एक वितान तना था।
कामायनी जगी थी कुछ-कुछ
खोकर सब चेतनता।
मनोभाव आकार स्वयं हो
रहा बिगड़ता बनता।
जिसके हृदय सदा समीप है
वही दूर जाता है।
और क्रोध होता उस पर ही
जिससे कुछ नाता है।
प्रिय को ठुकरा कर भी
मन की माया उलझा लेती।
प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में
उसको लौटा देती।
जलदागम-मारुत से कंपित
पल्लव सदृश हथेली।
श्रद्धा की, धीरे से मनु ने
अपने कर में ले ली।
अनुनय वाणी में
आँखों में उपालंभ की छाया।
कहने लगे-"अरे यह कैसी
मानवती की माया।
स्वर्ग बनाया है जो मैंने
उसे न विफल बनाओ।
अरी अप्सरे! उस अतीत के
नूतन गान सुनाओ।
इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित
विद्युत नभ के नीचे।
केवल हम तुम, और कौन?
रहो न आँखे मींचे।
आकर्षण से भरा विश्व यह
केवल भोग्य हमारा।
जीवन के दोनों कूलों में
बहे वासना धारा।
श्रम की, इस अभाव की जगती
उसकी सब आकुलता।
जिस क्षण भूल सकें हम
अपनी यह भीषण चेतनता।
वही स्वर्ग की बन अनंतता
मुसकाता रहता है।
दो बूँदों में जीवन का
रस लो बरबस बहता है।
देवों को अर्पित मधु-मिश्रित
सोम, अधर से छू लो।
मादकता दोला पर प्रेयसी!
आओ मिलकर झूलो।"
श्रद्धा जाग रही थी
तब भी छाई थी मादकता।
मधुर-भाव उसके तन-मन में
अपना हो रस छकता।
बोली एक सहज़ मुद्रा से
"यह तुम क्या कहते हो।
आज़ अभी तो किसी भाव की
धारा में बहते हो।
कल ही यदि परिवर्तन होगा
तो फिर कौन बचेगा।
क्या जाने कोई साथी
बन नूतन यज्ञ रचेगा।
और किसी की फिर बलि होगी
किसी देव के नाते।
कितना धोखा! उससे तो हम
अपना ही सुख पाते।
ये प्राणी जो बचे हुए हैं
इस अचला जगती के।
उनके कुछ अधिकार नहीं
क्या वे सब ही हैं फीके?
मनु! क्या यही तुम्हारी होगी
उज्ज्वल मानवता।--------------------------------------
जिसमें सब कुछ ले लेना हो
हंत बची क्या शवता।"
"तुच्छ नहीं है अपना सुख भी
श्रद्धे! वह भी कुछ है।
दो दिन के इस जीवन का तो
वही चरम सब कुछ है।
इंद्रिय की अभिलाषा
जितनी सतत सफलता पावे।
जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी
मधुर-मधुर कुछ गावे।
रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में
मृदु मुसकान खिले तो।
आशाओं पर श्वास निछावर
होकर गले मिले तो।
विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख
मुकुर बनी रहती हो।
वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है
यह तुम क्या कहती हो?
जिसे खोज़ता फिरता मैं
इस हिमगिरि के अंचल में।
वही अभाव स्वर्ग बन
हँसता इस जीवन चंचल में।
वर्तमान जीवन के सुख से
योग जहाँ होता है।
छली-अदृष्ट अभाव बना
क्यों वहीं प्रकट होता है।
किंतु सकल कृतियों की
अपनी सीमा हैं हम ही तो।
पूरी हो कामना हमारी
विफल प्रयास नहीं तो"
एक अचेतनता लाती सी
सविनय श्रद्धा बोली।
"बचा जान यह भाव सृष्टि ने
फिर से आँखेँ खोलीं।
भेद-बुद्धि निर्मम ममता की
समझ, बची ही होगी।
प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी
लौट गयी ही होंगी।
अपने में सब कुछ भर
कैसे व्यक्ति विकास करेगा।
यह एकांत स्वार्थ भीषण है
अपना नाश करेगा।
औरों को हँसता देखो
मनु-हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो
सब को सुखी बनाओ।
रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ
यह यज्ञ पुरूष का जो है।
संसृति-सेवा भाग हमारा
उसे विकसने को है।
सुख को सीमित कर
अपने में केवल दुख छोड़ोगे।
इतर प्राणियों की पीड़ा
लख अपना मुँह मोड़ोगे।
ये मुद्रित कलियाँ दल में
सब सौरभ बंदी कर लें।
सरस न हों मकरंद बिंदु से
खुल कर, तो ये मर लें।
सूखे, झड़े और तब कुचले
सौरभ को पाओगे।
फिर आमोद कहाँ से मधुमय
वसुधा पर लाओगे।
सुख अपने संतोष के लिये
संग्रह मूल नहीं है।
उसमें एक प्रदर्शन
जिसको देखें अन्य वही है।
निर्ज़न में क्या एक अकेले
तुम्हें प्रमोद मिलेगा?
नहीं इसी से अन्य हृदय का
कोई सुमन खिलेगा।
सुख समीर पाकर
चाहे हो वह एकांत तुम्हारा।
बढ़ती है सीमा संसृति की
बन मानवता-धारा।"
हृदय हो रहा था उत्तेज़ित
बातें कहते-कहते।
श्रद्धा के थे अधर सूखते
मन की ज्वाला सहते।
उधर सोम का पात्र लिये मनु
समय देखकर बोले-
"श्रद्धे पी लो इसे बुद्धि के
बंधन को जो खोले।
वही करूँगा जो कहती हो सत्य
अकेला सुख क्या?"
यह मनुहार रुकेगा
प्याला पीने से फिर मुख क्या?
आँखें प्रिय आँखों में,
डूबे अरुण अधर थे रस में।
हृदय काल्पनिक-विज़य में
सुखी चेतनता नस-नस में।
छल-वाणी की वह प्रवंचना
हृदयों की शिशुता को।
खेल दिखाती, भुलवाती जो
उस निर्मल विभुता को।
जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की
प्रगति दिशा को पल में।
अपने एक मधुर इंगित से
बदल सके जो छल में।
वही शक्ति अवलंब मनोहर
निज़ मनु को थी देती।
जो अपने अभिनय से
मन को सुख में उलझा लेती।
"श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी
यह भव रज़नी भीमा।
तुम बन जाओ इस ज़ीवन के
मेरे सुख की सीमा।
लज्जा का आवरण प्राण को
ढक लेता है तम से
उसे अकिंचन कर देता है
अलगाता 'हम तुम' से
कुचल उठा आनन्द,
यही है, बाधा, दूर हटाओ।
अपने ही अनुकूल सुखों को
मिलने दो मिल जाओ।"
और एक फिर व्याकुल चुम्बन
रक्त खौलता जिससे।
शीतल प्राण धधक उठता है
तृषा तृप्ति के मिस से।
दो काठों की संधि बीच
उस निभृत गुफा में अपने।
अग्नि शिखा बुझ गयी
जागने पर जैसे सुख सपने।