"ईर्ष्या / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
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पल भर की उस चंचलता ने | पल भर की उस चंचलता ने | ||
− | खो दिया हृदय का | + | खो दिया हृदय का स्वाधिकार। |
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा | श्रद्धा की अब वह मधुर निशा | ||
− | फैलाती निष्फल | + | फैलाती निष्फल अंधकार। |
− | मनु को अब मृगया | + | मनु को अब मृगया छोड़, नहीं |
− | रह गया और था अधिक | + | रह गया और था अधिक काम। |
− | लग गया रक्त था उस मुख में | + | लग गया रक्त था उस मुख में |
हिंसा-सुख लाली से ललाम। | हिंसा-सुख लाली से ललाम। | ||
− | हिंसा ही नहीं | + | हिंसा ही नहीं, और भी कुछ |
− | वह खोज रहा था मन | + | वह खोज रहा था मन अधीर। |
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा | अपने प्रभुत्व की सुख सीमा | ||
− | जो | + | जो बढ़ती हो अवसाद चीर। |
जो कुछ मनु के करतलगत था | जो कुछ मनु के करतलगत था | ||
− | उसमें न रहा कुछ भी | + | उसमें न रहा कुछ भी नवीन। |
− | श्रद्धा का सरल विनोद नहीं | + | श्रद्धा का सरल विनोद नहीं |
− | अब था बन रहा दीन। | + | रुचता अब था बन रहा दीन। |
उठती अंतस्तल से सदैव | उठती अंतस्तल से सदैव | ||
− | दुर्ललित लालसा जो कि | + | दुर्ललित लालसा जो कि कांत। |
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो | वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो | ||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
"निज उद्गम का मुख बंद किये | "निज उद्गम का मुख बंद किये | ||
− | कब तक सोयेंगे अलस | + | कब तक सोयेंगे अलस प्राण। |
जीवन की चिर चंचल पुकार | जीवन की चिर चंचल पुकार | ||
− | रोये कब तक, है कहाँ | + | रोये कब तक, है कहाँ त्राण। |
श्रद्धा का प्रणय और उसकी | श्रद्धा का प्रणय और उसकी | ||
− | आरंभिक सीधी | + | आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति। |
जिसमें व्याकुल आलिंगन का | जिसमें व्याकुल आलिंगन का | ||
− | अस्तित्व न तो है कुशल | + | अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति। |
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं | भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं | ||
− | नव-नव स्मित रेखा में | + | नव-नव स्मित रेखा में विलीन। |
− | अनुरोध न तो उल्लास | + | अनुरोध न तो उल्लास नहीं |
− | + | कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन। | |
आती है वाणी में न कभी | आती है वाणी में न कभी | ||
− | वह चाव भरी लीला- | + | वह चाव भरी लीला-हिलोर। |
− | + | जिसमें नूतनता नृत्यमयी | |
इठलाती हो चंचल मरोर। | इठलाती हो चंचल मरोर। | ||
पंक्ति 86: | पंक्ति 86: | ||
जब देखो बैठी हुई वहीं | जब देखो बैठी हुई वहीं | ||
− | शालियाँ बीन कर नहीं | + | शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत। |
या अन्न इकट्ठे करती है | या अन्न इकट्ठे करती है | ||
− | होती न तनिक सी कभी | + | होती न तनिक सी कभी क्लांत। |
बीजों का संग्रह और इधर | बीजों का संग्रह और इधर | ||
− | चलती है तकली भरी | + | चलती है तकली भरी गीत। |
सब कुछ लेकर बैठी है वह, | सब कुछ लेकर बैठी है वह, | ||
पंक्ति 104: | पंक्ति 104: | ||
लौटे थे मृगया से थक कर | लौटे थे मृगया से थक कर | ||
− | दिखलाई पडता गुफा- | + | दिखलाई पडता गुफा-द्वार। |
पर और न आगे बढने की | पर और न आगे बढने की | ||
− | इच्छा होती, करते | + | इच्छा होती, करते विचार। |
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी, | मृग डाल दिया, फिर धनु को भी, | ||
− | मनु बैठ गये शिथिलित | + | मनु बैठ गये शिथिलित शरीर। |
बिखरे ते सब उपकरण वहीं | बिखरे ते सब उपकरण वहीं | ||
पंक्ति 122: | पंक्ति 122: | ||
" पश्चिम की रागमयी संध्या | " पश्चिम की रागमयी संध्या | ||
− | अब काली है हो चली, | + | अब काली है हो चली, किंतु। |
− | अब तक आये न अहेरी | + | अब तक आये न अहेरी वे |
− | + | क्या दूर ले गया चपल जंतु। | |
" यों सोच रही मन में अपने | " यों सोच रही मन में अपने | ||
− | हाथों में तकली रही | + | हाथों में तकली रही घूम। |
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली | श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली | ||
पंक्ति 140: | पंक्ति 140: | ||
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह | केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह | ||
− | आँखों में आलस भरा | + | आँखों में आलस भरा स्नेह। |
कुछ कृशता नई लजीली थी | कुछ कृशता नई लजीली थी | ||
− | कंपित लतिका-सी लिये | + | कंपित लतिका-सी लिये देह। |
मातृत्व-बोझ से झुके हुए | मातृत्व-बोझ से झुके हुए | ||
− | + | बँध रहे पयोधर पीन आज। | |
कोमल काले ऊनों की | कोमल काले ऊनों की | ||
− | नवपट्टिका बनाती रुचिर | + | नवपट्टिका बनाती रुचिर साज। |
सोने की सिकता में मानों | सोने की सिकता में मानों | ||
− | + | कालिंदी बहती भर उसाँस। | |
− | + | स्वर्गंगा में इंदीवर की या | |
− | एक पंक्ति कर रही | + | एक पंक्ति कर रही हास। |
पंक्ति 176: | पंक्ति 176: | ||
श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा | श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा | ||
− | भावी जननी का सरस | + | भावी जननी का सरस गर्व। |
बन कुसुम बिखरते थे भू पर | बन कुसुम बिखरते थे भू पर | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
मनु ने देखा जब श्रद्धा का | मनु ने देखा जब श्रद्धा का | ||
− | वह सहज-खेद से भरा | + | वह सहज-खेद से भरा रूप। |
− | अपनी इच्छा का दृढ विरोध | + | अपनी इच्छा का दृढ विरोध |
जिसमें वे भाव नहीं अनूप। | जिसमें वे भाव नहीं अनूप। | ||
− | वे कुछ भी बोले नहीं, | + | वे कुछ भी बोले नहीं, रहे |
− | + | चुपचाप देखते साधिकार। | |
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी | श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी | ||
पंक्ति 201: | पंक्ति 201: | ||
− | 'दिन भर थे कहाँ भटकते | + | 'दिन भर थे कहाँ भटकते तुम' |
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह- | बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह- | ||
पंक्ति 207: | पंक्ति 207: | ||
"यह हिंसा इतनी है प्यारी | "यह हिंसा इतनी है प्यारी | ||
− | जो भुलवाती है देह- | + | जो भुलवाती है देह-देह। |
− | मैं यहाँ अकेली देख रही पथ | + | मैं यहाँ अकेली देख रही पथ |
− | सुनती-सी पद-ध्वनि | + | सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत। |
− | कानन में जब तुम | + | कानन में जब तुम दौड़ रहे |
मृग के पीछे बन कर अशांत | मृग के पीछे बन कर अशांत | ||
पंक्ति 221: | पंक्ति 221: | ||
ढल गया दिवस पीला पीला | ढल गया दिवस पीला पीला | ||
− | तुम | + | तुम रक्तारुण वन रहे घूम। |
देखों नीडों में विहग-युगल | देखों नीडों में विहग-युगल | ||
− | अपने शिशुओं को रहे | + | अपने शिशुओं को रहे चूम। |
− | उनके घर | + | उनके घर में कोलाहल है |
− | मेरा सूना है गुफा- | + | मेरा सूना है गुफा-द्वार। |
तुमको क्या ऐसी कमी रही | तुमको क्या ऐसी कमी रही | ||
पंक्ति 239: | पंक्ति 239: | ||
" श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं | " श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं | ||
− | पर मैं तो | + | पर मैं तो देख रहा अभाव। |
भूली-सी कोई मधुर वस्तु | भूली-सी कोई मधुर वस्तु | ||
पंक्ति 248: | पंक्ति 248: | ||
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने | चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने | ||
− | + | अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह। | |
− | गतिहीन पंगु-सा | + | गतिहीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा |
ढह कर जैसे बन रहा डीह। | ढह कर जैसे बन रहा डीह। | ||
− | जब | + | जब जड़-बंधन-सा एक मोह |
− | कसता प्राणों का मृदु | + | कसता प्राणों का मृदु शरीर। |
− | + | आकुलता और जकड़ने की | |
तब ग्रंथि तोडती हो अधीर। | तब ग्रंथि तोडती हो अधीर। | ||
− | हँस कर बोले, बोलते हुए | + | हँस कर बोले, बोलते हुए |
− | + | ||
− | मधु-निर्झर-ललित- | + | निकले मधु-निर्झर-ललित-गान। |
गानों में उल्लास भरा | गानों में उल्लास भरा | ||
पंक्ति 275: | पंक्ति 275: | ||
वह आकुलता अब कहाँ रही | वह आकुलता अब कहाँ रही | ||
− | जिसमें सब कुछ ही जाय | + | जिसमें सब कुछ ही जाय भूल। |
आशा के कोमल तंतु-सदृश | आशा के कोमल तंतु-सदृश | ||
पंक्ति 286: | पंक्ति 286: | ||
तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म? | तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म? | ||
− | तुम बीज बीनती क्यों? | + | तुम बीज बीनती क्यों? मेरा |
− | + | मृगया का शिथिल हुआ न कर्म। | |
− | तिस पर यह पीलापन | + | तिस पर यह पीलापन कैसा |
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद? | यह क्यों बुनने का श्रम सखेद? | ||
− | यह किसके लिए, बताओ तो | + | यह किसके लिए, बताओ तो |
− | इसमें है छिप रहा भेद?" | + | क्या इसमें है छिप रहा भेद?" |
" अपनी रक्षा करने में जो | " अपनी रक्षा करने में जो | ||
− | चल जाय तुम्हारा कहीं | + | चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र। |
− | वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं | + | वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं |
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र। | हिंसक से रक्षा करे शस्त्र। | ||
− | पर जो निरीह जीकर भी | + | पर जो निरीह जीकर भी कुछ |
− | + | उपकारी होने में समर्थ। | |
− | वे क्यों न जियें, उपयोगी बन | + | वे क्यों न जियें, उपयोगी बन |
इसका मैं समझ सकी न अर्थ। | इसका मैं समझ सकी न अर्थ। |
14:40, 22 फ़रवरी 2015 का अवतरण
पल भर की उस चंचलता ने
खो दिया हृदय का स्वाधिकार।
श्रद्धा की अब वह मधुर निशा
फैलाती निष्फल अंधकार।
मनु को अब मृगया छोड़, नहीं
रह गया और था अधिक काम।
लग गया रक्त था उस मुख में
हिंसा-सुख लाली से ललाम।
हिंसा ही नहीं, और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर।
अपने प्रभुत्व की सुख सीमा
जो बढ़ती हो अवसाद चीर।
जो कुछ मनु के करतलगत था
उसमें न रहा कुछ भी नवीन।
श्रद्धा का सरल विनोद नहीं
रुचता अब था बन रहा दीन।
उठती अंतस्तल से सदैव
दुर्ललित लालसा जो कि कांत।
वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो
दब जाती अपने आप शांत।
"निज उद्गम का मुख बंद किये
कब तक सोयेंगे अलस प्राण।
जीवन की चिर चंचल पुकार
रोये कब तक, है कहाँ त्राण।
श्रद्धा का प्रणय और उसकी
आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति।
जिसमें व्याकुल आलिंगन का
अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति।
भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं
नव-नव स्मित रेखा में विलीन।
अनुरोध न तो उल्लास नहीं
कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन।
आती है वाणी में न कभी
वह चाव भरी लीला-हिलोर।
जिसमें नूतनता नृत्यमयी
इठलाती हो चंचल मरोर।
जब देखो बैठी हुई वहीं
शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत।
या अन्न इकट्ठे करती है
होती न तनिक सी कभी क्लांत।
बीजों का संग्रह और इधर
चलती है तकली भरी गीत।
सब कुछ लेकर बैठी है वह,
मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"
लौटे थे मृगया से थक कर
दिखलाई पडता गुफा-द्वार।
पर और न आगे बढने की
इच्छा होती, करते विचार।
मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,
मनु बैठ गये शिथिलित शरीर।
बिखरे ते सब उपकरण वहीं
आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।
" पश्चिम की रागमयी संध्या
अब काली है हो चली, किंतु।
अब तक आये न अहेरी वे
क्या दूर ले गया चपल जंतु।
" यों सोच रही मन में अपने
हाथों में तकली रही घूम।
श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली
अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।
केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह
आँखों में आलस भरा स्नेह।
कुछ कृशता नई लजीली थी
कंपित लतिका-सी लिये देह।
मातृत्व-बोझ से झुके हुए
बँध रहे पयोधर पीन आज।
कोमल काले ऊनों की
नवपट्टिका बनाती रुचिर साज।
सोने की सिकता में मानों
कालिंदी बहती भर उसाँस।
स्वर्गंगा में इंदीवर की या
एक पंक्ति कर रही हास।
कटि में लिपटा था नवल-वसन
वैसा ही हलका बुना नील।
दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीडा
झेलती जिसे जननी सलील।
श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा
भावी जननी का सरस गर्व।
बन कुसुम बिखरते थे भू पर
आया समीप था महापर्व।
मनु ने देखा जब श्रद्धा का
वह सहज-खेद से भरा रूप।
अपनी इच्छा का दृढ विरोध
जिसमें वे भाव नहीं अनूप।
वे कुछ भी बोले नहीं, रहे
चुपचाप देखते साधिकार।
श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी
ज्यों जान गई उनका विचार।
'दिन भर थे कहाँ भटकते तुम'
बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-
"यह हिंसा इतनी है प्यारी
जो भुलवाती है देह-देह।
मैं यहाँ अकेली देख रही पथ
सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत।
कानन में जब तुम दौड़ रहे
मृग के पीछे बन कर अशांत
ढल गया दिवस पीला पीला
तुम रक्तारुण वन रहे घूम।
देखों नीडों में विहग-युगल
अपने शिशुओं को रहे चूम।
उनके घर में कोलाहल है
मेरा सूना है गुफा-द्वार।
तुमको क्या ऐसी कमी रही
जिसके हित जाते अन्य-द्वार?'
" श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं
पर मैं तो देख रहा अभाव।
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
जैसे कर देती विकल घाव।
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने
अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह।
गतिहीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जड़-बंधन-सा एक मोह
कसता प्राणों का मृदु शरीर।
आकुलता और जकड़ने की
तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।
हँस कर बोले, बोलते हुए
निकले मधु-निर्झर-ललित-गान।
गानों में उल्लास भरा
झूमें जिसमें बन मधुर प्रान।
वह आकुलता अब कहाँ रही
जिसमें सब कुछ ही जाय भूल।
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम तकली में हो रही झूल।
यह क्यों, क्या मिलते नहीं
तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों? मेरा
मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।
तिस पर यह पीलापन कैसा
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?
यह किसके लिए, बताओ तो
क्या इसमें है छिप रहा भेद?"
" अपनी रक्षा करने में जो
चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र।
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।
पर जो निरीह जीकर भी कुछ
उपकारी होने में समर्थ।
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन
इसका मैं समझ सकी न अर्थ।
'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''