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सुणा-बीरा
कोई नूवीं कविता

कैवै बो - घणी बार
जद भी सुणाऊं
म्हैं बीनै-कोई नूंवी कविता

मनै लागै - कितै सै‘ज ढंग सूं
अर किण तरा
अलौप रूप सूं
म्हैं हुय जाऊ नागौ धिड़ंग
म्हारै‘ई कलाकार रै सांमी

म्हैं क्या कैवू बीनै
कियां समझाऊ बीरै भौळेपण नै

क म्हारै मांय-मांय ई मांय
गूंजतौ तो थो जठै
बैवंता तो थो कदै
निरमल अर मीठै जळ रो
कोई झरणौ
इण दिनां ठीक बै‘ई ठौड़
भंभाड़ मारै है
कोई खाली कुवो

जिणरी अंधारै सू लबालब
भींत्या माथै
बणाय लिया है
मकड्या आपरा जाळा
अर चालती रै छिपकल्यां
अरे ! बी तो कैयौ थौ
सुणावण कोई नूंवी कविता

अर म्हैं बिखैर दिया-कांटा
तीखा कांटा
जका नीं दीख‘भी
खुभसी-बी रे मन आंगण

म्हैं फैरू संभळ‘र
फीकौ सौ मुळक‘र
कैयौ बी नै
नीं....नीं...म्हैं नीं सुणाय सकूला
तनै कोई कविता
कोई नूंवी कविता

बो दैखतौ रैयौ अैकीटक
नीं ठा बै कीं सौच्यौ
कीं सौच्यौ भी ?