भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"निरस्त्र / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (संग्रह का लिंक डाला है)
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
कुहरा था,
 
कुहरा था,
  
सागर पर सन्नाटा था :
+
सागर पर सन्नाटा था:
  
पंछी चुप थे ।
+
पंछी चुप थे।
  
 
महाराशि से कटा हुआ  
 
महाराशि से कटा हुआ  
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
 
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
 
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
  
निश्चल था--
+
निश्चल था—
  
पारदर्श ।
+
पारदर्श।
  
  
पंक्ति 33: पंक्ति 33:
 
मुझे सहसा दीखा
 
मुझे सहसा दीखा
  
केंकड़ा एक :
+
केंकड़ा एक:
  
 
आँखें ठण्डी
 
आँखें ठण्डी
पंक्ति 41: पंक्ति 41:
 
निष्कौतूहल
 
निष्कौतूहल
  
निर्निमेष ।
+
निर्निमेष।
  
  
पंक्ति 55: पंक्ति 55:
 
आँख-भर तक लेने का साहस;
 
आँख-भर तक लेने का साहस;
  
मैंने पूछा : क्यों जी,
+
मैंने पूछा: क्यों जी,
  
 
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
 
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
  
मैं करता हूँ प्यार किसी को--
+
मैं करता हूँ प्यार किसी को—
  
तो चौंकोगे ?
+
तो चौंकोगे?
  
 
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
 
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
  
औचक ?
+
औचक?
  
  
पंक्ति 71: पंक्ति 71:
 
उस उदासीन ने  
 
उस उदासीन ने  
  
सुना नहीं :
+
सुना नहीं:
  
 
आँखों में
 
आँखों में
  
वही बुझा सूनापन जमा रहा ।
+
वही बुझा सूनापन जमा रहा।
  
 
ठण्डे नीले लोहू में
 
ठण्डे नीले लोहू में
पंक्ति 81: पंक्ति 81:
 
दौड़ी नहीं
 
दौड़ी नहीं
  
सनसनी कोई ।
+
सनसनी कोई।
  
  
पंक्ति 95: पंक्ति 95:
 
किसी कोटर में
 
किसी कोटर में
  
सरक गया ।
+
सरक गया।
  
  
पंक्ति 115: पंक्ति 115:
 
निष्कवच,
 
निष्कवच,
  
वध्य ।
+
वध्य।

09:11, 17 मार्च 2008 का अवतरण

कुहरा था,

सागर पर सन्नाटा था:

पंछी चुप थे।

महाराशि से कटा हुआ

थोड़ा-सा जल

बन्दी हो

चट्टानों के बीच एक गढ़िया में

निश्चल था—

पारदर्श।


प्रस्तर-चुम्बी

बहुरंगी

उद्भिज-समूह के बीच

मुझे सहसा दीखा

केंकड़ा एक:

आँखें ठण्डी

निष्प्रभ

निष्कौतूहल

निर्निमेष।


जाने

मुझ में कौतुक जागा

या उस प्रसृत सन्नाटे में

अपना रहस्य यों खोल

आँख-भर तक लेने का साहस;

मैंने पूछा: क्यों जी,

यदि मैं तुम्हें बता दूँ

मैं करता हूँ प्यार किसी को—

तो चौंकोगे?

ये ठण्डी आँखें झपकेंगी

औचक?


उस उदासीन ने

सुना नहीं:

आँखों में

वही बुझा सूनापन जमा रहा।

ठण्डे नीले लोहू में

दौड़ी नहीं

सनसनी कोई।


पर अलक्ष्य गति से वह

कोई लीक पकड़

धीरे-धीरे

पत्थर की ओट

किसी कोटर में

सरक गया।


यों मैं

अपने रहस्य के साथ

रह गया

सन्नाटे से घिरा

अकेला

अप्रस्तुत

अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र

निष्कवच,

वध्य।