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"खण्डः एक / स्त्री" के अवतरणों में अंतर

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जबसे तूने मुझे, मैंने तुझे, छोड़ा।
 
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हे देवी मां, आज तुम्हारा व्रत टूट गया, कर दो क्षमा
 
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सुना है तुम उसे अपने घर ले आने वाले हो
 
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रीते हुए ज़ख्मों को कुरेदना और फिर
 
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मैंने तुम्हें कभी पूर्णतया नहीं पाया
 
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एक लाचारी ही है, जो ढो रही हूं
 
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मैं तो थी ही तुम्हारे घर की निर्वासित  
 
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एक तपती हुई दोपहर।
 
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हथेलियों पर चुभा-चुभा कर आलपिन।
 
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बिना खेले हारी हुई बाजी का टीसता एहसास।
 
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कभी शराब में डूबी तुम्हारी काया को
 
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उस घर में भला क्यों न उठे बवण्डर।
 
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आफ़िस में सभी की घूरती नज़रें
 
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बरसते हुए पानी को, खुली खिड़की से
 
बरसते हुए पानी को, खुली खिड़की से

14:35, 22 मार्च 2015 का अवतरण

एक


जबसे तूने मुझे, मैंने तुझे, छोड़ा।

गली गली, घर घर, व्यक्ति व्यक्ति ने

बार-बार चर्चों में, तुझे मुझे जोड़ा।।

दो


अपना-अपना मत, अपना-अपना अभियोग

कौन किसके जीवन में बोया बबूल।

बस यहीं सहमत हैं-बच्चा है भूल।।

तीन


सहसा, अप्रत्याशित, यों ही हुए आत्मस्खलनों को

भले तुम मेरी तुष्ठि कह लो।

मगर, अब मैं मात्र ज़िस्म नहीं, कुछ देर मुझे सह लो।।

चार


नित्य ही

तुम्हारी स्मृतियों की लाश से लिपट कर सोना।

है मेरा, पवित्र होना।।

पांच


हे देवी मां, आज तुम्हारा व्रत टूट गया, कर दो क्षमा

हो गयी गुस्ताखी।

आज उनके जाने पर, प्याले की बची हुई, पी ली है

दो बूंद काफी।।

छः


जाने क्यों आज मैं पहन रही हूं

तुम्हारी पसंद की साड़ी।

इस समय तुम निश्चित ही बना रहे होगे-दाढ़ी।।

सात


तकिये पर पहले गी खुदी-शुभ रात्रि

देती हूं उलट।

नींद के नाम पर झेलती हूं करवट।।

आठ


सुना है तुम उसे अपने घर ले आने वाले हो

बुक रैक पर से मेरी हंसती हुई तस्वीर हटा देना

उसे खलेगा।

मैं, कभी कुछ तुम्हारी नाममात्र की ही थी

सोचकर जी जलेगा।।

नौ


रीते हुए ज़ख्मों को कुरेदना और फिर

सहलाना।

कितना जानलेवा है, मुन्ने को नहलाना।।

दस


मैंने तुम्हें कभी पूर्णतया नहीं पाया

मैं कभी तुमसे नहीं हुई पूरी।

फिर कैसे-मैं तुम बिन अधूरी?

ग्यारह


एक लाचारी ही है, जो ढो रही हूं

तुम्हारे कारण मिला सम्बोधन-श्रीमती।

वरन् मैं नहीं सावित्री।।

बारह


जाने क्यों लगता है मेरी यादें

अब भी उस घर में जड़ी होंगी।

वादा करके भी तुम नहीं आते थे

उन फ़िल्मों की टिकटें किसी मेज़ की दराज़ में पड़ी होंगी।।

तेरह


आफ़िस में प्रमोशन

तात्पर्य मैं फ़ाइलों में पूर्णतया डूब गयी।

क्या सचमुच ज़िन्दगी से ऊब गयी।।

चौदह


मैं तो थी ही तुम्हारे घर की निर्वासित

लाज।

और अब, मै चूज़ा, जग बाज।।

पंद्रह


एक तपती हुई दोपहर।

पहले तुम्हारा घर

अब सारा शहर।।

सोलह


हथेलियों पर चुभा-चुभा कर आलपिन।

जोड़ती हूं

उम्र के गुज़रे हुए दिन।।

सत्रह


बिना खेले हारी हुई बाजी का टीसता एहसास।

धर देता है सज़ाकर टी टेबल पर

ताश।।

अठारह


आज लाइन चली गयी।

रोशनी से लड़ना नहीं पड़ेगा

मुन्ना भी खुश है, उसे पढ़ना नहीं पड़ेगा।।

उन्नीस


कभी शराब में डूबी तुम्हारी काया को

अपने सौन्दर्य की भेंट तपस्या थी।

पत्नी होने का भ्रम पाले मैं एक वेश्या थी।।

बीस


सोचती हूं मुन्ने को किसी दूसरे शहर

बोर्डिंग स्कूल में भेज दूं

वैसे यह नहीं है उतना आसान।

यो ऐसा करना ही होगा. वरन उसे देख लोग

लगा लेते हैं कुछ-कुछ

मेरी उम्र का अनुमान।।

इक्कीस


ऐसा नही कि मैं नहीं समझती

तुम पुरुषों के आडम्बर।

लोग जानबूझकर करते हैं मुझे फ़ोन

और कहते हैं स्वारी रांग नम्बर।।

बाईस


उस घर में भला क्यों न उठे बवण्डर।

लोग तो ताड़ लेते हैं अपनी पत्नी की

चूडि़यों तक का नाप।

और तुम्हें, शायद याद नहीं

मेरी ब्रेसियर का नम्बर।।

तेईस


आफ़िस में सभी की घूरती नज़रें

इस बात की हिमायती हैं

कि मुझमें अब भी है-सेक्स अपील।

काश! ये कोई आकर मुंह पर कहता

और मैं डांटती कहकर-अश्लील।।

चौबीस


बरसते हुए पानी को, खुली खिड़की से

बाहर हाथ निकाल

चूल्लू में रोपना और पानी का अथक

प्रयास के बाद भी चूना।

काश कि कोई घर में होता जिससे

मैं लजाकर कहती, प्लीज मुझे मत छूना।।