"करूण क्रन्दन / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद |अनुवादक= |संग्रह=क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | करूणा-निधे, यह | + | करूणा-निधे, यह करूण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये |
कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये | कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये | ||
− | हम मानते, हम | + | हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं |
− | हम है | + | हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं |
सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही | सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही | ||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं | संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं | ||
− | तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता | + | तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं |
झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में | झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में | ||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो | वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो | ||
− | हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो | + | हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो |
है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो | है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो | ||
12:32, 2 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
करूणा-निधे, यह करूण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये
कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये
हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं
हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं
सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही
पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने पुकारा है नहीं
सन्तुष्ट बालक खेलने से तो कभी थकता नहीं
कुछ क्लेश पाते, याद पड़ जाते पिता-माता वही
संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं
तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं
झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में
है बुद्धि चक्कर में भँवर सी घूमती उद्वेग में
गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो
वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो
हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो
है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो
ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन-रात हैं
कुविचार-क्रूरों के कठिन कैसे कुठिल आघात हैं
हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में
फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरूद्ध में