भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मलिना / जयशंकर प्रसाद

15 bytes added, 11:04, 2 अप्रैल 2015
बरसाती नाले उछल-उछल बल खाते
वह हरी लजाओ लताओ की सुन्दर अमरई अमराई
बन बैठी है सुकुमारी-सी छावि छाई
हर ओर अनूठा दृष्य दृश्‍य दिखाई देता
सब मोती ही-से बना दिखाई देता
वह सघन कुंज सुख-पुंज भ्रमर की आली
कुछ और दृष्य दृश्‍य है सुषमा नई निराली
बैठी है वसन मलीन पहिन इक बाला
ज्यों घूसर नभ में चन्द्र-कला चमकीली
पर हाय ! चन्द्र को घन ने कयों क्‍यों है घेरा
उज्जवल प्रकाश के पास अजीब अँधेरा
चंचल चलती है भाव-भरी है गहरी
कल-कमल कोष कोश पर अहो ! पड़ा क्यों पाला
कैसी हाला ने किया उसे मतवाला
Delete, Mover, Reupload, Uploader
2,887
edits