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ठहरो / जयशंकर प्रसाद

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दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता
‘हट जाओ’ की हुड़्कार हुंकार से होता है भयभीत वह
यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह
तनक न जाओ मित्र ! तनिक उसकी भी सुन लो
जो करहता कराहता खाट धरे, उसको कुछ गुन लोकर्कष कर्कश स्वर की बोल कान में न सुहाती है
मीठी बोली तुम्हें नहीं कुछ भी आती है
अभिमान-नाव जिस पर चढ़े हो वह तो अति क्षद्र है
वह प्रणाम करता है, तुम नहिं उŸार उत्तर देते
क्यों, क्या वह है जीव नहीं जो रूख नहिं देते
कैया कैसा यह अभिमान, अहो कैसी कठिनाईउसने जरो जो कुछ भूल किया, वह भूलो भाई
उसका यदि वस्त्र मलीन है, पास बिठा सकते नहीं
क्या उज्जवल वस्त्र नवीन इक उसे पिन्हा सकते नहीं 
कुंचित है भ्रू-युगल वदन पर भी लाली है
अधर प्रस्फुरित हुआ म्यान असि से खाली है
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