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"एकान्त में / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदो से था घिरा  
 
आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदो से था घिरा  
 
संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा
 
संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा
यह चंचला चमला दिखाती थी कभी अपनी कला
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यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला
 
ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला
 
ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला
 
हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है
 
हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है
 
मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है
 
मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है
 
यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा भली
 
यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा भली
निर्जन प्रशान्त सुषैल-पथ में गिरी कुसुमों की कली
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निर्जन प्रशान्त सुशैल-पथ में गिरी कुसुमों की कली
 
कैसी क्षितिज में है बनाती मेघ-माला रूप को
 
कैसी क्षितिज में है बनाती मेघ-माला रूप को
 
गज, अश्‍व, सुरभी दे रही उपहार पावस भूप को
 
गज, अश्‍व, सुरभी दे रही उपहार पावस भूप को
यह शैल-श्रृड़्ग विराग-भूमि बना सुवारिद-वृन्द की  
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यह शैल-श्रृंग विराग-भूमि बना सुवारिद-वृन्द की  
 
कैसी झड़ी-सी लग रही है स्वच्छ जल के बिन्दु की  
 
कैसी झड़ी-सी लग रही है स्वच्छ जल के बिन्दु की  
 
स्त्रोतस्विनी हरियालियों में कर रही कलरव महा
 
स्त्रोतस्विनी हरियालियों में कर रही कलरव महा
ज्यों हरे धूँ घट-ओट में है कामिनी हँसती अहा
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ज्यों हरे धूँघट-ओट में है कामिनी हँसती अहा
 
किस ओर से यह स्त्रोत आता है शिखर में वेग से
 
किस ओर से यह स्त्रोत आता है शिखर में वेग से
 
जो पूर्ण करता वन कणों से हृदय को आवेग से  
 
जो पूर्ण करता वन कणों से हृदय को आवेग से  
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उद्देश्‍य-हीन गवाँ रहाँ है समय को क्यों फैलकर  
 
उद्देश्‍य-हीन गवाँ रहाँ है समय को क्यों फैलकर  
 
कानन-कुसुम जो हैं वे भला पूछो किसी मति धीर से
 
कानन-कुसुम जो हैं वे भला पूछो किसी मति धीर से
उत्तंग जो यह श्रृड़्ग है उस पर खड़ा तरूराज है
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उत्तंग जो यह श्रृंग है उस पर खड़ा तरूराज है
 
शाखावली भी है महा सुखमा सुपुष्प-समाज है
 
शाखावली भी है महा सुखमा सुपुष्प-समाज है
होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभज्जन-वेग में
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होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभंजन-वेग में
 
हाँ ! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग में
 
हाँ ! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग में
 
यह शून्यता वन की बनी बेजोड़ पूरी शान्ति से  
 
यह शून्यता वन की बनी बेजोड़ पूरी शान्ति से  

16:59, 2 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदो से था घिरा
संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा
यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला
ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला
हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है
मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है
यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा भली
निर्जन प्रशान्त सुशैल-पथ में गिरी कुसुमों की कली
कैसी क्षितिज में है बनाती मेघ-माला रूप को
गज, अश्‍व, सुरभी दे रही उपहार पावस भूप को
यह शैल-श्रृंग विराग-भूमि बना सुवारिद-वृन्द की
कैसी झड़ी-सी लग रही है स्वच्छ जल के बिन्दु की
स्त्रोतस्विनी हरियालियों में कर रही कलरव महा
ज्यों हरे धूँघट-ओट में है कामिनी हँसती अहा
किस ओर से यह स्त्रोत आता है शिखर में वेग से
जो पूर्ण करता वन कणों से हृदय को आवेग से
अविराम जीवन-स्त्रोत-सा यह बन रहा है शैल पर
उद्देश्‍य-हीन गवाँ रहाँ है समय को क्यों फैलकर
कानन-कुसुम जो हैं वे भला पूछो किसी मति धीर से
उत्तंग जो यह श्रृंग है उस पर खड़ा तरूराज है
शाखावली भी है महा सुखमा सुपुष्प-समाज है
होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभंजन-वेग में
हाँ ! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग में
यह शून्यता वन की बनी बेजोड़ पूरी शान्ति से
करूणा-कलित कैसी कला कमनीय कोमल कान्ति से
चल चित्त चंचल वेग को तत्काल करता धीर है
एकान्त में विश्रान्त मन पाता सुशीतल नीर है
निस्तब्धता संसार की उस पूर्ण से है मिल रही
पर जड़ प्रकृति सब जीव में सब ओर ही अनमिल रही