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"दलित कुमुदिनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी
 
हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी
 
इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी  
 
इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी  
चण्ड दिवाकर की किरणों भी पता न जिसका पाती थीं
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चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं
 
रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ
 
रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ
 
राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ
 
राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ
 
जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा
 
जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा
 
मृदु चुम्बन-उल्लास-भरी लहरी का जिस पर था घेरा
 
मृदु चुम्बन-उल्लास-भरी लहरी का जिस पर था घेरा
षीत पवन के मधुर स्वर्ष से सिहर उठा करती थी जो
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शीत पवन के मधुर स्पर्श से सिहर उठा करती थी जो
श्‍याम का संगीत नवीन सकम्प सुना करती थी जो
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श्‍यामा का संगीत नवीन सकम्प सुना करती थी जो
छोटी-छोटी स्वर्ण मच्छलियों का जिस पर रहता पहरा
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छोटी-छोटी स्वर्ण मछलियों का जिस पर रहता पहरा
 
स्वच्छ आन्तरिक प्रेम-भाव का रंग चढ़ा जिस पर गहरा
 
स्वच्छ आन्तरिक प्रेम-भाव का रंग चढ़ा जिस पर गहरा
 
जिसका मधुर मरन्द-स्त्रोत भी उछल-उछल मिलता जल में
 
जिसका मधुर मरन्द-स्त्रोत भी उछल-उछल मिलता जल में

17:05, 2 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी
हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी
इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी
चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं
रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ
राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ
जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा
मृदु चुम्बन-उल्लास-भरी लहरी का जिस पर था घेरा
शीत पवन के मधुर स्पर्श से सिहर उठा करती थी जो
श्‍यामा का संगीत नवीन सकम्प सुना करती थी जो
छोटी-छोटी स्वर्ण मछलियों का जिस पर रहता पहरा
स्वच्छ आन्तरिक प्रेम-भाव का रंग चढ़ा जिस पर गहरा
जिसका मधुर मरन्द-स्त्रोत भी उछल-उछल मिलता जल में
सौरभ उसका फैलाता था रम्य सरोवर निर्मल में
जिसका मुग्ध विकास हदय को अहो मुग्ध कर देता था
सरज पीत केसर भी खिलकर भव्य भाव पर देता था
किसी स्वार्थी मतवाले हाथी से हा ! पद-दलित हुई
वही कुमुदिनी, ग्रीष्मताप-तापिज रज में परिमिलित हुई
छिन्न-पत्र मकरन्दहीन हो गई न शोभा प्यारी है
पड़ी कण्टकाकीर्ण मार्ग में, कालचक्र गति न्यारी है