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18:13, 4 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
क्या गाती है नदिया, चंचल जल की धारा,
बही जा रही बजा-बजा कर इकतारा!
पर्वत पर अल्हड़ सी ये मीन-नयन धारे,
मंदिर के कलशों की झिलमिल लहराती रे .
हर पल नव-जल गागर उच्छल हो हो छलके
मुक्ता कण बिखऱ-बिखऱ वन घासों पर ढलके
चलती पल-पल अविरल, रुक नहीं कहीं पाती
आवेग-उमंग भरी, बल-खाती बढ़ जाती!
कहता गर्वित पर्वत-
ये चंचल जल-बाला मेरी ही तो कन्या.
जीवन रस से सबको जो सींच रही धन्या,
दुर्गम पाहन अड़ते, ऊँची-नीची राहें
सागर को पाने का व्रत पाल रही वन्या,
उमड़ी आती उर से, मेरी असीस-धारा!
मतवाला हो बादल,
मँडराता सागर पर भरता भूरी छागल .
फिर उमड़, घमंड भरा चढ़ नभ में इतराता .
मल्हार राग गाता, जम जाता पूरा दल!
सावन में भगत बना, आता काँवर लेकर,
कंकर-कंकर को यो नहलाता ज्यों शंकर!
नदिया-पर्वत-बादल,
फिर निर्मल मधु-सा जल
सागर को सौंप लवण,
जीवन का यह अनुक्रम!