{{KKRachna
|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
|अनुवादक=|संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी}} <poem>सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥ कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥
'''मुखपृष्ठ: [[अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥
सुमिरौं आदि एक करतारू कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥<br>कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू मगर मच्छ बहु बरना ॥<br>कीन्हेसि अगिनिसीप, पवन, जल खेहा मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा नग निरमरे ॥<br>कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि बरन बरन औतारू तरिवर तार खजूरी ॥<br>कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती साउज आरन रहईं । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥<br>कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा भूख नींद बिसरामा ॥ <br>कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा बहु ओषद, बहु रोगू ॥<br><br>
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज निमिख न काहि लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।<br>पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥<br><br>गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा भीमसेन औ चीना ॥<br>कीन्हेसि नदी नारनाग, औ झरना जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना मंत्र, हरै जेहि डसा ॥<br>कीन्हेसि सीपअमृत , मोती जेहि भरे जियै जो पाए । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥<br>कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी करू-बेल बहु फरी ॥<br>कीन्हेसि साउज आरन रहईं मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि उडहिं जहँ चहईं औ पाँखी ॥<br>कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा बहुत रहहिं खनि माटी ॥<br>कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू राकस भूत परेता । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू भोकस देव दएता ॥<br><br>
निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।<br>गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥<br><br>भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥<br>कीन्हेसि नागमानुष, जो मुख विष बसा दिहेसि बडाई । कीन्हेसि मंत्रअन्न, हरै जेहि डसा भुगुति तेहिं पाई ॥<br>कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए हस्ति घोर तेहि साजू ॥<br>कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी लोभ, अघाइ न कोई ॥<br>कीन्हेसि मधु लावै लै माखी जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि भौंरमीचु, पंखि औ पाँखी न कोई रहा ॥<br>कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी दुख चिंता औ धंदू ॥<br>कीन्हेसि राकस भूत परेता कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि भोकस देव दएता सँपति बिपति पुनि घनी ॥<br><br>
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।<br>भुगुति दुहेसि छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥<br><br>कीन्हेसि सब छार ॥4॥
कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई धनपति उहै जेहिक संसारू । कीन्हेसि अन्नसबै देइ निति, भुगुति तेहिं पाई घट न भँडारू ॥<br>कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि जावत जगत हस्ति घोर तेहि साजू औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥<br>कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई ताकर दीठि जो सब उपराहीं । कीन्हेसि लोभ, अघाइ मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥<br>कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । कीन्हेसि मीचुसबै खवाई, न कोई रहा आप नहिं खाई ॥<br>कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू ताकर उहै जो खाना पियना । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥<br>कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी सबै आस-हर ताकर आसा । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी वह न काहु के आस निरासा ॥<br><br>
कीन्हेसि कोई निभरोसीजुग जुग देत घटा नहिं, कीन्हेसि कोइ बरियार उभै हाथ अस कीन्ह ।<br>छारहिं तें और जो दीन्ह जगत महँ सो सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥<br><br>ताकर दीन्ह ॥5॥
धनपति उहै जेहिक संसारू आदि एक बरनौं सोइ राजा । सबै देइ निति, घट आदि न भँडारू अंत राज जेहि छाजा ॥<br>जावत जगत हस्ति सदा सरबदा राज करेई । औ चाँटा जेहि चहै राज तेहि देई ॥छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥<br>ताकर दीठि जो परबत ढाह देख सब उपराहीं लोगू । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥<br>पखि पतंग बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥ताकर कीन्ह न बिसरे जानै कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि करै सोइ जो चित्त न होई ॥<br>काहू भोग भुगुति बहु भाँति उपाई सुख सारा । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥<br>ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥<br>सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा काहू बहुत भूख दुख मारा ॥<br><br>
जुग जुग देत घटा नहिंसबै नास्ति वह अहथिर, उभै हाथ अस कीन्ह ऐस साज जेहि केर ।<br>और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥<br><br>एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥
आदि एक बरनौं सोइ राजा अलख अरूप अबरन सो कर्ता । आदि न अंत राज जेहि छाजा वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥<br>सदा सरबदा राज करेई परगट गुपुत सो सरबबिआपी । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥<br>छत्रहिं अछतधरमी चीन्ह, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा न चीन्है पापी ॥<br>परबत ढाह देख सब लोगू ना ओहि पूत न पिता न माता । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥<br>बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई जना न काहु, न कोइ ओहि जना । तिनहि बज्र करि देई बडाई जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥<br>ताकर वै सब कीन्ह न जानै जहाँ लगि कोई । करै सोइ जो चित्त न वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥<br>काहू भोग भुगुति सुख सारा हुत पहिले अरु अब है सोई । काहू बहुत भूख दुख मारा पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥<br><br>
सबै नास्ति वह अहथिरजो चाहा सो कीन्हेसि, ऐस साज जेहि केर करै जो चाहै कीन्ह ।<br>एक साजे औ भाँजै बरजनहार न कोई, चहै सँवारै फेर ॥6॥<br><br>सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥
अलख अरूप अबरन सो कर्ता एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥<br>परगट गुपुत सो सरबबिआपी जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । धरमी चीन्हकर नाहीं, न चीन्है पापी पै करै सबाईं ॥<br>ना ओहि पूत न पिता न माता जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥<br>जना न काहुस्रवन नाहिं, न कोइ ओहि जना पै सक किछु सुना । जहँ लगि हिया नाहिं पै सब ताकर सिरजना किछु गुना ॥<br>वै नयन नाहिं, पै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई किछु देखा । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥<br>हुत पहिले अरु अब है सोई नाहीं कोइ ताकर रूपा । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥<br>और जो होइ सो बाउर अंधा ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥<br><br>
जो चाहा सो कीन्हेसिना वह मिला न बेहरा, करै जो चाहै कीन्ह ऐस रहा भरिपूरि ।<br>बरजनहार न कोईदीठिवंत कहँ नीयरे, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥<br><br>अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू और जो दीन्हेसि रतन अमोला । जस पुरान महँ लिखा बखानू ताकर मरम न जानै भोला ॥<br>जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं दीन्हेसि रसना और रस भोगू । कर नाहीं, पै करै सबाईं दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥<br>जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । तन नाहीं, सब ठाहर डोला दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥<br>स्रवन नाहिंदीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना बर बाहाँ ॥<br>नयन नाहिं, पै सब किछु देखा दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥<br>है नाहीं कोइ ताकर रूपा जोबन मरम जान पै बूढा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥<br>ना ओहि ठाउँ, दुख कर मरम न ओहि बिनु ठाऊँ जानै राजा । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥<br><br>
ना वह मिला न बेहराकाया-मरम जान पै रोगी, ऐस रहा भरिपूरि भोगी रहै निचिंत ।<br>दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥<br><br>सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥
और जो दीन्हेसि रतन अमोला अति अपार करता कर करना । ताकर मरम बरनि न जानै भोला कोई पावै बरना ॥<br>दीन्हेसि रसना और रस भोगू सात सरग जौ कागद करई । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥<br>दीन्हेसि जावत जग देखन कहँ नैना साखा बनढाखा । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥<br>दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ जावत खेह रेह दुनियाई । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ मेघबूँद औ गगन तराई ॥<br>दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं सब लिखनी कै लिखु संसारा । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥<br>जोबन मरम जान पै बूढा ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । मिला अबहुँ समुद महँ बूँद न तरुनापा जग ढूँढाँ घटा ॥<br>दुख कर मरम ऐस जानि मन गरब न जानै राजा होई । दुखी जान जा पर दुख बाजा गरब करे मन बाउर सोई ॥<br><br>
काया-मरम जान पै रोगीबड गुनवंत गोसाईं, भोगी रहै निचिंत चहै सँवारै बेग ।<br>सब कर मरम गोसाईं (जान) औ अस गुनी सँवारे, जो घट घट रहै निंत ॥9॥<br><br>गुन करै अनेग ॥10॥
अति अपार करता कर करना कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । बरनि न कोई पावै बरना नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥<br>सात सरग जौ कागद करई प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । धरती समुद दुहुँ मसि भरई औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥<br>जावत दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा , मारग चीन्हा ॥<br>जावत खेह रेह दुनियाई जौ न होत अस पुरुष उजारा । मेघबूँद औ गगन तराई सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥<br>सब लिखनी कै लिखु संसारा दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा भए धरमी जे पाढत सिखे ॥<br>ऐस जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद नरक महँ बूँद न घटा ठाउँ ॥<br>ऐस जानि मन गरब न होई जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । गरब करे मन बाउर सोई दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥<br><br>
बड गुनवंत गोसाईंगुन अवगुन बिधि पूछब, चहै सँवारै बेग होइहिं लेख औ जोख ।<br>औ अस गुनी सँवारेवह बिनउब आगे होइ, जो गुन करै अनेग ॥10॥<br><br>करब जगत कर मोख ॥11॥
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । नाम मुहम्मद पूनौ-करा जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥<br>प्रथम जोति बिधि ताकर साजी अबाबकर सिद्दीक सयाने । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥<br>दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा निरमल जग, मारग चीन्हा अदल दीन जो आए ॥<br>जौ न होत अस पुरुष उजारा पुनि उसमान पंडित बड गुनी । सूझि न परत पंथ अँधियारा लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥<br>दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे चौथे अली सिंह बरियारू । भए धरमी जे पाढत सिखे सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥<br>जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ चारिउ एक मतै, एक बाना । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ एक पंथ औ एक सँधाना ॥<br>जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा बचन एक जो सुना वइ साँचा । दुइ भा परवान दुहुँ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा बाँचा ॥<br><br>
गुन अवगुन जो पुरान बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख पठवा सोई पढत गरंथ ।<br>वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥<br><br>और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ सेरसाहि देहली-सुलतान । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ चारिउ खंड तपै जस भानू ॥<br>अबाबकर सिद्दीक सयाने ओही छाज छात औ पाटा । पहिले सिदिक दीन वइ आने सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥<br>पुनि सो उमर खिताब सुहाए जाति सूर औ खाँडे सूरा । भा जग अदल दीन जो आए और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥<br>पुनि उसमान पंडित बड गुनी सूर नवाए नवखँड वई । लिखा पुरान जो आयत सुनी सातउ दीप दुनी सब नई ॥<br>चौथे अली सिंह बरियारू तह लगि राज खडग करि लीन्हा । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥<br>चारिउ एक मतै, एक बाना हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । एक पंथ औ एक सँधाना जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥<br>बचन एक जो सुना वइ साँचा औ अति गरू भूमिपति भारी । भा परवान दुहुँ जग बाँचा टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥<br><br>
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज । <br>और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥<br><br>बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥
सेरसाहि देहली-सुलतान बरनौं सूर भूमिपति राजा । चारिउ खंड तपै जस भानू भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥<br>ओही छाज छात औ पाटा हय गय सेन चलै जग पूरी । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥<br>जाति सूर औ खाँडे सूरा रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥<br>सूर नवाए नवखँड वई भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । सातउ दीप दुनी सब नई खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥<br>तह लगि राज खडग करि लीन्हा डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥<br>हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी मेरु धसमसै, समुद सुखाई । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥<br>औ अति गरू भूमिपति भारी अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥<br><br>
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।<br>बादसाह तुम जगत के जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग तुम्हार मुहताज ॥13॥<br><br>सूर ॥14॥
बरनौं सूर भूमिपति राजा अदल कहौं पुहुमी जस होई । भूमि चाँटा चलत न भार सहै जेहि साजा दुखवै कोई ॥<br>हय गय सेन चलै जग पूरी नौसेरवाँ जो आदिल कहा । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥<br>रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा भइ अहा सगरी दुनियाई ॥<br>भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा परी नाथ कोइ छुवै न पारा । खंड खंड धरती बरम्हंडा मारग मानुष सोन उछारा ॥<br>डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥ <br>मेरु धसमसै, समुद सुखाई नीर खीर छानै दरबारा । बन खँड टूटि खेह मिल जाई दूध पानि सब करै निनारा ॥<br>अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा धरम नियाव चलै; सत भाखा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा दूबर बली एक सम राखा ॥<br><br>
जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।<br>जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥<br><br>गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥
अदल कहौं पुहुमी जस होई पुनि रूपवंत बखानौं काहा । चाँटा चलत न दुखवै कोई जावत जगत सबै मुख चाहा ॥<br>नौसेरवाँ ससि चौदसि जो आदिल कहा दई सँवारा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥<br>अदल पाप जाइ जो कीन्ह उमर दरसन दीसा । जग जुहार कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई देत असीसा ॥<br>परी नाथ कोइ छुवै न पारा जैस भानु जग ऊपर तपा । मारग मानुष सोन उछारा सबै रूप ओहि आगे छपा ॥<br>गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा अस भा सूर पुरुष निरमरा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा सूर चाहि दस आगर करा ॥<br>नीर खीर छानै दरबारा सौंह दीठि कै हेरि न जाई । दूध पानि सब करै निनारा जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥<br>धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥<br><br>
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि ।<br>गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥<br><br>मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥
पुनि रूपवंत बखानौं काहा दातार दई जग कीन्हा । जावत जगत सबै मुख चाहा अस जग दान न काहू दीन्हा ॥<br>ससि चौदसि जो दई सँवारा बलि विक्रम दानी बड कहे । ताहू चाहि रूप उँजियारा हातिम करन तियागी अहे ॥<br>पाप जाइ जो दरसन दीसा सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । जग जुहार कै देत असीसा समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥<br>जैस भानु जग ऊपर तपा दान डाँक बाजै दरबारा । सबै रूप ओहि आगे छपा कीरति गई समुंदर पारा ॥<br>अस भा कंचन परसि सूर पुरुष निरमरा जग भयऊ । सूर चाहि दस आगर करा दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥<br>सौंह दीठि कै हेरि न जाई जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जेहि देखा सो रहा सिर नाई जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥<br>रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥<br><br>
रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।<br>मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥<br><br>ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥
पुनि दातार दई जग कीन्हा सैयद असरफ पीर पियारा । अस जग दान न काहू दीन्हा जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥<br>बलि विक्रम दानी बड कहे लेसा हियें प्रेम कर दीया । हातिम करन तियागी अहे उठी जोति भा निरमल हीया ॥<br>सेरसाहि सरि पूज न कोऊ मारग हुत अँधियार जो सूझा । समुद सुमेर भँडारी दोऊ भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥<br>दान डाँक बाजै दरबारा खार समुद्र पाप मोर मेला । कीरति गई समुंदर पारा बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥<br>कंचन परसि सूर जग भयऊ उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । दारिद भागि दिसंतर गयऊ पायों तीर घाट जो अहा ॥<br>जो कोइ जाइ एक बेर माँगा जाकहँ ऐस होइ कंधारा । जनम न भा पुनि भूखा नागा तुरत बेगि सो पावै पारा ॥<br>दस असमेध जगत जेइ कीन्हा दस्तगीर गाढे कै साथी । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥<br><br>
ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।<br>ना अस भयउ न होइहिवै मखदूम जगत के, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥<br><br>हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥
सैयद असरफ पीर पियारा ओहि घर रतन एक निरमरा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा हाजी शेख सबै गुन भरा ॥<br>लेसा हियें प्रेम कर दीया तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । उठी जोति भा निरमल हीया पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥<br>मारग हुत अँधियार जो सूझा सेख मुहम्मद पून्यो-करा । भा अँजोर, सब जाना बूझा सेख कमाल जगत निरमरा ॥<br>खार समुद्र पाप मोर मेला दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥<br>उन्ह मोर कर बूडत कै गहा दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । पायों तीर घाट जो अहा कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥<br>जाकहँ ऐस होइ कंधारा दुहुँ खंभ टेके सब महीं । तुरत बेगि सो पावै पारा दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥ <br>दस्तगीर गाढे कै साथी जेहि दरसे औ परसे पाया । बह अवगाहपाप हरा, दीन्ह तेहि हाथी निरमल भइ काया ॥<br><br>
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।<br>वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥<br><br>जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥
ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥<br>
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥<br>
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥<br>
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥<br>
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥<br>
दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥<br>
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥<br><br>
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥सैयद मुहमद तेइ निचिंत पथ कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि सग मुरसिद पीर खेला ॥दानियाल गुरु पंथ लखाए ।<br>हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥<br><br>भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा एक नयन कबि मुहमद गुनी । चलै उताइल जेहिं कर खेवा सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥<br>अगुवा भयउ सेख बुरहानू चाँद जैस जग विधि औतारा । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू कलंक, कीन्ह उजियारा ॥<br>अहलदाद भल तेहि कर गुरू जग सूझा एकै नयनाहाँ । दीन दुनी रोसन सुरखुरू उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥<br>सैयद मुहमद कै वै चेला जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥<br>दानियाल गुरु पंथ लखाए कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥<br>भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥<br>ओहि सेवत मैं पाई करनी जौ लहि घरी कलंक न परा । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥<br><br>
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।<br>उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥<br><br>सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥
एक नयन चारि मीन कबि मुहमद गुनी पाए । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥<br>चाँद जैस जग विधि औतारा युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा पहिले भेद-बात वै जानी ॥<br>जग सूझा एकै नयनाहाँ पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥<br>जौ लहि अंबहिं डाभ न होई मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई बीर खेतरन खडग जुझारू ॥<br>कीन्ह समुद्र पानि जो खारा सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥<br>जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा चारिउ चतुरदसा गुन पढे । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा औ संजोग गोसाईं गढे ॥<br>बिरिछ होइ जौ लहि घरी कलंक न परा चंदन पासा । काँच चंदन होइ नहिं कंचन-करा बेधि तेहि बासा ॥<br><br>
एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।<br>सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥<br><br>एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥
चारि मीन कबि मुहमद पाए जायस नगर धरम अस्थानू । जोरि मिताई सिर पहुँचाए तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥<br>युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी औ बिनती पँडितन सन भजा । पहिले भेद-बात वै जानी टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥<br>पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ हौं पंडितन केर पछलागा । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥<br>मियाँ सलौने सिंघ बरियारू हिय भंडार नग अहै जो पूजी । बीर खेतरन खडग जुझारू खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥<br>सेख बडे, बड सिद्ध बखाना रतन-पदारथ बोल जो बोला । किए आदेस सिद्ध बड माना ।<br>सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥चारिउ चतुरदसा गुन पढे जेहि के बोल बिरह कै घाया । औ संजोग गोसाईं गढे कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥<br>बिरिछ होइ जौ चंदन पासा फेरे भेख रहै भा तपा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥<br><br>
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।<br>एहि जग साथ जो निबहाजेइ मुख देखा तेइ हसा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥<br><br>सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥
जायस नगर धरम अस्थानू सन नव सै सत्ताइस अहा । तहाँ आइ कथा अरंभ-बैन कबि कीन्ह बखानू कहा ॥<br>औ बिनती पँडितन सन भजा सिंघलदीप पदमिनी रानी । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा रतनसेन चितउर गढ आनी ॥<br>हौं पंडितन केर पछलागा अलउद्दीन देहली सुलतानू । किछु कहि चला तबल देइ डगा राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥<br>हिय भंडार नग अहै जो पूजी सुना साहि गढ छेंका आई । खोली जीभ तारू कै कूँजी हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥ <br>रतन-पदारथ बोल जो बोला आदि अंत जस गाथा अहै । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला लिखि भाखा चौपाई कहै ॥<br>जेहि के बोल बिरह कै घाया कवि बियास कवला रस-पूरी । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥<br>फेरे भेख रहै भा तपा नियरे दूर, फूल जस काँटा । धूरि-लपेटा मानिक छपा दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥<br><br>
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।<br>जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥<br><br>दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥
सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥<br>
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥<br>
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥<br>
सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥<br>
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥<br>
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥<br>
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥<br><br>
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।<br>
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥<br><br>
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर
मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त,
स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता
है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा ।
चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।
(7) सिरजना=रचना ।
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।
(11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरानमें लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात्अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य (13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था ।जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधिकाँदौ = कर्दम, कीचड । (15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक मेंपहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)। (16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा(मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उनकी चौदहवीं तिथि पडती है ।) (17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया । (18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।
(20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा । (21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी । (22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन =चौदह विद्याएँ । (23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी । (24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।</poem>