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"ओ निःसंग ममेतर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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विरह की आप्त व्यथा
 
विरह की आप्त व्यथा
  
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10:50, 25 मार्च 2008 का अवतरण

आज फिर एक बार

मैं प्यार को जगाता हूँ

खोल सब मुंदे द्वार

इस अगुरु-धूम-गन्ध-रुंधे सोने के घर के

हर कोने को

सुनहली खुली धूप में निल्हाता हूँ।

तुम जो मेरी हो, मुझ में हो,

सघनतम निविड में

मैं ही जो हो अनन्य

तुम्हें मैं दूर बाहर से, प्रान्तर से,

देशावर से, कालेतर से

तल से, अतल से, धरा से, सागर से,

अन्तरीक्ष से,

निर्व्यास तेजस् के निर्गभीर शून्य आकर से

मैं, समाहित अन्तःपूत,

मन्त्राहूत कर तुम्हें

ओ निःसंग ममेतर,

ओ अभिन्न प्यार

ओ धनी!

आज फिर एक बार

तुम को बुलाता हूँ—

और जो मैं हूँ, जो जाना-पहचाना,

जिया-अपनाया है, मेरा है,

धन है, संचय है, उस की एक-एक कली को

न्योछावर लुटाता हूँ।




जिन शिखरों की

हेम-मज्जित उंगलियों ने

निर्विकल्प इंगित से

जिस निर्व्यास उजाले को

सतत झलकाया है—

उस में जो छाया मैंने पहचानी है

तुम्हारी है।


जिन झीलों की

जिन पारदर्शी लहरों ने

नीचे छिपे शैवाल को सुनहला चमकाया है,

निश्चल निस्तल गहराइयों में

जो निश्छल उल्लास झलकाया है,

उस में निर्वाक् मैंने

तुम्हें पाया है।


भटकी हवाएँ जो गाती हैं,

रात की सिहरती पत्तियों से

अनमनी झरती वारि-बूंदे

जिसे टेरती हैं,

फूलों की पीली पियालियाँ

जिस की ही मुस्कान छलकाती हैं,

ओट मिट्टी की, असंख्य रसातुरा शिराएँ

जिस मात्र को हेरती हैं;

वसन्त जो लाता है,

निदाघ तपाता है,

वर्षा जिसे धोती है, शरद संजोता है,

अगहन पकाता और फागुन लहराता

और चैत काट, बांध, रौंद, भर कर ले जाता है—

नैसर्गिक चंक्रमण सारा—

पर दूर क्यों,

मैं ही जो साँस लेता हूँ

जो हवा पीता हूँ—

उस में हर बार, हर बार,

अविराम, अक्लान्त, अनाप्यायित

तुम्हें जीता हूँ।




घाटियों में

हँसियाँ

गूंजती हैं।

झरनों में

अजस्रता

प्रतिश्रुत होती है।

पंछी ऊँऽऽची

भरते हैं उड़ान—

आशाओं का इन्द्र-चाप

दोनों छोर नभ के

मिलाता है।


मुझ में पर—मुझ में—मुझ में—

मेरे हर गीत में, मेरी हर ज्ञप्ति में—

कुछ है जो काँटे सा कसकाता,

अंगारे सुलगाता है—

मेरे हर स्पन्दन में, साँस में, समाई में

विरह की आप्त व्यथा

रोती है।


जीना—सुलगना है

जागना—उमंगना है

चीन्हना—चेतना का

तुम्हारे रंग रंगना है।




मैंने तुम्हें देखा है

असंख्य बार:

मेरी इन आँखों में बसी हुई है

छाया उस अनवद्य रूप की।


मेरे नासापुटों में तुम्हारी गन्ध—

मैं स्वयं उस से सुवासित हूँ।

मेरे स्तब्ध मानस में गीत की लहर-सा

छाया है तुम्हारा स्वर।

और रसास्वाद: मेरी स्मृति में अभिभूत है।

मैंने तुम्हें छुआ है

मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम

मेरी उंगलियों बीच छन कर बही हो—

कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त।

मैंने तुम्हें चूमा है

और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप

मेरा हर रक्त-कण धारे है।


आह! पर मैंने तुम्हें जाना नहीं।




नहीं! मैंने तुम्हें केवल मात्र जाना है।

देखा नहीं मैंने कभी,

सुना नहीं, छुआ नहीं,

किया नहीं रसास्वाद—

ओ स्वतःप्रमाण! मैंने

तुम्हें जाना,

केवल मात्र जाना है।


देख मैं सका नहीं:

दीठ रही ओछी, क्योंकि तुम समग्र एक विश्व हो

छू सका नहीं:

अधूरा रहा स्पर्श क्योंकि तुम तरल हो, वायवी हो

पहचान सका नहीं: तुम

मायाविनि, कामरूपा हो।


किन्तु, हाँ, पकड़ सका—

पकड़ सका, भोग सका

क्योंकि जीवनानुभूति

बिजली-सी त्वरग, अमोघ एक पंजा है

बलिष्ठ;

एक जाल निर्वारणीय:

अनुभूति से तो

कभी, कहीं, कुछ नहीं

बच के निकलता!




जीवनानुभूति: एक पंजा कि जिस में

तुम्हारे साथ मैं भी तो पकड़ में

आ गया हूँ!

एक जाल, जिस में

तुम्हारे साथ मैं भी बंध गया हूँ।

जीवनानुभूति:

एक चक्की। एक कोल्हू।

समय कि अजस्र धार का घुमाया हुआ

पर्वती घराट् एक अविराम।

एक भट्ठी, एक आवाँ स्वतःतप्त:

अनुभूति!




तुम्हें केवल मात्र जाना है,

केवल मात्र तुम्हें जाना है,

तुम्हें जाना है, अप्रमाद तुम्हें जपा है,

तुम्हें स्मरा है।

और मैंने देखा है—

और मेरी स्मृति ने

मेरी देखी सारी रूप-राशि को इकाई दी है।

मैंने सुना है—

और मेरी अविकल्प स्मृति ने

सभी स्वर एक मूर्छना में गूँथ डाले हैं।

—सूंघा, और स्मृति ने

विकीर्ण सब गन्धों को

चयित कर दिया एक वृन्त में एक ही वसन्त के।

—मैंने छुआ है:

और मेरे ज्ञान ने असंख्य माया-मूर्तियों के

दी है वह संहति अचूक

जो-मात्र मेरी पहचानी है

जिसे-मात्र मैंने चाहा है।

—मैंने चूमा है,

और, ओ आस्वाद्य मेरी!

ले गयी है प्रत्यभिज्ञा मुझे उत्स तक

जिस की पीयूषवर्षी, अनवद्य, अद्वितिय धार

मुझे आप्यायित करती है।


हाँ, मैंने तुम्हें जाना है, मैं जानता हूँ,

पहचानता हूँ, सांगोपांग;

ओर भूलता नहीं हूँ—कभी भूल नहीं सकता!


भूलता नहीं हूँ

कभी भूल नहीं सकता

और मैं बिखरना नहीं चाहता।

आज, मन्त्राहूत ओ प्रियस्व मेरी!

मुझ को जो कहना है, वह इस धधकते क्षण में

वाग्देवता की यज्ञ-ज्वाला जब तक अभी

जलती है मेरी इस आविष्ट जिह्वा पर,

तब तक—मैं कह लूँ:

मेरे ही दाह का हुताश्न हो साक्षी मेरा!




ओ आहूत!

ओ प्रत्यक्ष!

अप्रतिम!

ओ स्वयंप्रतिष्ठ!

सुनो संकल्प मेरा:


मैंने छुआ है, और मैं छुआ गया हूँ;

मैने चूमा है, और मैं चूमा गया हूँ;

मैं विजेता हूँ और मुझे जीत लिया गया है;

मैं हूँ, और मैं दे दिया गया हूँ;

मैं जिया हूँ, और मेरे भीतर से जी लिया गया है;

मैं मिटा हूँ, मैं पराभूत हूँ, मैं तिरोहित हूँ,

मैं अवतरित हुआ हूँ, मैं आत्मसात् हूँ,

अमर्त्य, कालजित् हूँ।


मैं चला हूँ

पहचानकर,

प्रकाश में,

दिक्-प्रबुद्ध,

लक्ष्यसिद्ध।

इसी बल

जहाँ-जहाँ पहचान हुई, मैंने

वह ठाँव छोड़ दी;

ममता ने तरिणी को तीर-ओर मोड़ा—

वह डोर मैंने तोड़ दी।

हर लीक पोंछी, हर डगर मिटा दी, हर दीप

निवा मैंने

बढ़ अन्धकार में

अपनी धमनी

तेरे साथ जोड़ दी।




ओ मेरी सह-तितिर्षु,

हमीं तो सागर हैं

जिस के हम किनारे हैं क्योंकि जिसे हमने

पार कर लिया है।


ओ मेरी सहयायिनि,

हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं

जिसे हम ओक-भर पीते हैं—

बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से,

क्योंकि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे

पूरित किए रहता है।


ओ मेरी सहधर्मा,

छू दे मेरा कर: आहुति दे दूँ—

हमीं याजक हैं, हमीं यज्ञ,

जिसमें हुत हमीं परस्परेष्टि।

ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,

ओ मेरी हविष्यान्न,

आ तू, मुझे खा

जैसे मैंने तुझे खाया है

प्रसादवत्।

हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं

परस्परजीवी हैं।



१०


ओ सहजन्मा, सह-सुभगा

नित्योढ़ा,

सहभोक्ता,

सहजीवा, कल्याणी।



११


ओ मेरे पुण्य-प्रभव,

मेरे आलोक-स्नात, पद्म-पत्रस्थ जल-बिन्दु,

मेरी आँखों के तारे,

ओ ध्रुव, ओ चंचल,

ओ तपोजात,

मेरे कोटि-कोटि लहरों से मंजे एकमात्र मोती

ओ विश्व-प्रतिम,

अब तू इस कृति सीप को अपने में समेट ले,

यह परदृश्य सोख ले।

स्वाति बूंद! चातक को आत्मलीन तू कर ले!

ओ वरिष्ठ! ओ वर दे! ओ वर ले!