"हनुमानबाहुक / भाग 3 / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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− | रचिबेको बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर | + | '''रचिबेको बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर''' |
− | मीच मारिबेको, ज्याइबे को सुधापान भो। | + | '''मीच मारिबेको, ज्याइबे को सुधापान भो।''' |
− | धरिबेको धरनि, तरनि तम दलिबे को, | + | '''धरिबेको धरनि, तरनि तम दलिबे को,''' |
− | सोखिबे कृसानु, पोपिबे को हिम-भानु भो॥ | + | '''सोखिबे कृसानु, पोपिबे को हिम-भानु भो॥''' |
− | खल दुख-दोषिबे को, जन पारितोषिबे को, | + | '''खल दुख-दोषिबे को, जन पारितोषिबे को,''' |
− | माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो। | + | '''माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो।''' |
− | आरतकी आरति निवारिबेको तिहूँ पुर, | + | '''आरतकी आरति निवारिबेको तिहूँ पुर,''' |
− | तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान | + | '''तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो॥11॥''' |
− | भावार्थ - आप सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारने को रूद्र और जिलाने के लिये अमृतपान के समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकार को नसाने में सूर्य, सुखाने में अग्नि, पोषण करने में चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलों को दुःख देने और दूषित बनाने वाले, सेवकों को संतुष्ट करने वाले एंव माँगना रूप मैलेपन का विनाश करने में मोदकदाता हुए। तीनों लोकों में दुखियों के दुःख छुड़ाने के लिए तुलसी के स्वामी श्री हनुमानजी दृढ़प्रतिज्ञ हुए हैं॥ 11॥ | + | '''भावार्थ''' - आप सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारने को रूद्र और जिलाने के लिये अमृतपान के समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकार को नसाने में सूर्य, सुखाने में अग्नि, पोषण करने में चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलों को दुःख देने और दूषित बनाने वाले, सेवकों को संतुष्ट करने वाले एंव माँगना रूप मैलेपन का विनाश करने में मोदकदाता हुए। तीनों लोकों में दुखियों के दुःख छुड़ाने के लिए तुलसी के स्वामी श्री हनुमानजी दृढ़प्रतिज्ञ हुए हैं॥ 11॥ |
− | सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, | + | '''सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,''' |
− | सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको। | + | '''सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको।''' |
− | देवी देव दानव दयावने है जोरैं हाथ, | + | '''देवी देव दानव दयावने है जोरैं हाथ,''' |
− | बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥ | + | '''बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥''' |
− | जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, | + | '''जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,''' |
− | ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको। | + | '''ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको।''' |
− | सब दिन रूरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, | + | '''सब दिन रूरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,''' |
− | जाके है भरोसो हिये हनुमान | + | '''जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको॥12॥''' |
− | भावार्थ - सेवक हनुमानजी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात एहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनी कुमार की हाँक का भरोसा है॥ 12॥ | + | '''भावार्थ''' - सेवक हनुमानजी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात एहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनी कुमार की हाँक का भरोसा है॥ 12॥ |
− | सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, | + | '''सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,''' |
− | लोकपाल सकल लखन राम जानकी। | + | '''लोकपाल सकल लखन राम जानकी।''' |
− | लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, | + | '''लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,''' |
− | तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥ | + | '''तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥''' |
− | केसरी किसोर बंदीछोर के नेवाजे सब, | + | '''केसरी किसोर बंदीछोर के नेवाजे सब,''' |
− | कीरति बिमल कपि करूनानिधान की। | + | '''कीरति बिमल कपि करूनानिधान की।''' |
− | बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, | + | '''बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,''' |
− | जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान | + | '''जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की॥13॥''' |
− | भावार्थ - जिसके हृदय में हनुमानजी की हाँक उल्लसित होती है, उस पर अपने सेवकों और पार्वती जी के सहित शंकर भगवान, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्ति वाले हनुमानजी के प्रसन्न होने सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करूणानिधान कपीश्वर कीर्ति ऐसे ही निर्मल है॥ 13॥ | + | '''भावार्थ''' - जिसके हृदय में हनुमानजी की हाँक उल्लसित होती है, उस पर अपने सेवकों और पार्वती जी के सहित शंकर भगवान, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्ति वाले हनुमानजी के प्रसन्न होने सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करूणानिधान कपीश्वर कीर्ति ऐसे ही निर्मल है॥ 13॥ |
− | करूनानिधान, बलबुद्धि के निधान, मोद- | + | '''करूनानिधान, बलबुद्धि के निधान, मोद-''' |
− | महिमानिधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ। | + | '''महिमानिधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ।''' |
− | बामदेव-रूप, भूप रामके सनेही, नाम | + | '''बामदेव-रूप, भूप रामके सनेही, नाम''' |
− | लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥ | + | '''लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥''' |
− | आपने प्रभाव, सीतानाथ के सुभाव सील, | + | '''आपने प्रभाव, सीतानाथ के सुभाव सील,''' |
− | लोक-बेद-बिधिके विदुष हनुमान हौ। | + | '''लोक-बेद-बिधिके विदुष हनुमान हौ।''' |
− | मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार, | + | '''मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार,''' |
− | तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान | + | '''तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥14॥''' |
− | भावार्थ - तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्दमहिमा के मन्दिर और गुण-ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो। हे हनुमानजी ! आप अपनी शक्ति से श्री रघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधिके पण्डित हो। मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं। अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते | + | '''भावार्थ''' - तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्दमहिमा के मन्दिर और गुण-ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो। हे हनुमानजी ! आप अपनी शक्ति से श्री रघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधिके पण्डित हो। मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं। अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं॥14॥ |
− | मनको अगम, तन सुगम किये कपीस, | + | '''मनको अगम, तन सुगम किये कपीस,''' |
− | काज महाराजके समाज साज साजे हैं। | + | '''काज महाराजके समाज साज साजे हैं।''' |
− | देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर, | + | '''देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर,''' |
− | जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥ | + | '''जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥''' |
− | बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर | + | '''बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर''' |
− | सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं। | + | '''सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं।''' |
− | बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं, | + | '''बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं,''' |
− | जैसे होत आये हनुमानके निवाजे | + | '''जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं॥15॥''' |
− | भावार्थ - हे कपिराज! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था उसको आपने शरीर करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करनेवाले, संग्रामभूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है॥ 15॥ | + | '''भावार्थ''' - हे कपिराज! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था उसको आपने शरीर करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करनेवाले, संग्रामभूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है॥ 15॥ |
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15:52, 15 मई 2015 के समय का अवतरण
रचिबेको बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर
मीच मारिबेको, ज्याइबे को सुधापान भो।
धरिबेको धरनि, तरनि तम दलिबे को,
सोखिबे कृसानु, पोपिबे को हिम-भानु भो॥
खल दुख-दोषिबे को, जन पारितोषिबे को,
माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो।
आरतकी आरति निवारिबेको तिहूँ पुर,
तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो॥11॥
भावार्थ - आप सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारने को रूद्र और जिलाने के लिये अमृतपान के समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकार को नसाने में सूर्य, सुखाने में अग्नि, पोषण करने में चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलों को दुःख देने और दूषित बनाने वाले, सेवकों को संतुष्ट करने वाले एंव माँगना रूप मैलेपन का विनाश करने में मोदकदाता हुए। तीनों लोकों में दुखियों के दुःख छुड़ाने के लिए तुलसी के स्वामी श्री हनुमानजी दृढ़प्रतिज्ञ हुए हैं॥ 11॥
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको।
देवी देव दानव दयावने है जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको।
सब दिन रूरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको॥12॥
भावार्थ - सेवक हनुमानजी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात एहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनी कुमार की हाँक का भरोसा है॥ 12॥
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥
केसरी किसोर बंदीछोर के नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करूनानिधान की।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की॥13॥
भावार्थ - जिसके हृदय में हनुमानजी की हाँक उल्लसित होती है, उस पर अपने सेवकों और पार्वती जी के सहित शंकर भगवान, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्ति वाले हनुमानजी के प्रसन्न होने सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करूणानिधान कपीश्वर कीर्ति ऐसे ही निर्मल है॥ 13॥
करूनानिधान, बलबुद्धि के निधान, मोद-
महिमानिधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ।
बामदेव-रूप, भूप रामके सनेही, नाम
लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥
आपने प्रभाव, सीतानाथ के सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधिके विदुष हनुमान हौ।
मनकी, बचनकी, करमकी तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥14॥
भावार्थ - तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्दमहिमा के मन्दिर और गुण-ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो। हे हनुमानजी ! आप अपनी शक्ति से श्री रघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधिके पण्डित हो। मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं। अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं॥14॥
मनको अगम, तन सुगम किये कपीस,
काज महाराजके समाज साज साजे हैं।
देव-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर,
जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥
बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर
सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं।
बिगरी सँवार अंजनीकुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं॥15॥
भावार्थ - हे कपिराज! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था उसको आपने शरीर करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करनेवाले, संग्रामभूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है॥ 15॥