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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|संग्रह=निशा निमन्त्रण / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना थाथा।
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना हैहै।
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना हैहै।
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना हैहै।
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना हैहै।
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना हैहै।
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना हैहै।</poem>
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