"ज़ीमा जंकशन (भाग-2 / येव्गेनी येव्तुशेंको" के अवतरणों में अंतर
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− | + | हर तरफ सहजता थी कि जिंदगी बेहतर हो | |
+ | सड़क पर आओ | ||
+ | झण्डे फहराओ | ||
+ | और क्रान्तिकारी गीता गाओ | ||
+ | फूलों को संभालते हुए | ||
+ | और सड़क साफ दिखाई दी | ||
+ | आगे ‘कम्यून’ तक। | ||
+ | वह कैसे समझ सकता था | ||
+ | उच्च सैनिक कमान के साथ | ||
+ | जीवन के निर्णायक दौर को | ||
+ | यह हमारे लिए बहुत आसान न था | ||
+ | कि कैसे समझा जाये जन-जीवन की जटिलताओं को। | ||
+ | एक सर्द सुबह भीगे हुए कदमों से | ||
+ | उसने अपने सामान को बोरे में भरा, बांधा | ||
+ | और घोड़े पर चढ़ते हुए स्कूली लड़की से कहाμ | ||
+ | ‘अच्छाμफिर मिलेंगे’ | ||
+ | और ओझल हो गया | ||
+ | रकाबों के साथ उछलता हुआ | ||
+ | उधर जहाँ से हवा आई थी | ||
+ | विस्फोटों से गंधाती हुई | ||
+ | और उसका घोड़ा चौकड़ियां भरता हुआ उसे | ||
+ | पूर्व की ओर ले गया | ||
+ | बेरबरी की अयालों को फटकारता हुआ। | ||
+ | इस तरह वर्ष बीतते गये | ||
+ | एक के बाद दूसरा | ||
+ | छोटे-से कस्बे में बढ़ता रहा मैं | ||
+ | सुनसान घरों | ||
+ | हरे-भरे मैदानों | ||
+ | और जंगलों के लिए मोह समेटता हुआ | ||
+ | बढ़ता रहा मैं | ||
+ | लुकते-छिपते नहीं पकड़ा गया | ||
+ | चौकीदार से | ||
+ | हम भूसे के ढेर से अनाज को बाहर निकालते थे | ||
+ | बन्दूकों के किये हुए छेदों से। | ||
+ | वह लड़ाई का समय था | ||
+ | हिटलर मास्को से दूर नहीं था | ||
+ | और हम बच्चे थे | ||
+ | बहुत कुछ को सहज ढंग से लेते हुए | ||
+ | कक्षा की धमकियों को झेलते हुये | ||
+ | और भूलते हुए | ||
+ | हम स्कूल के खेल के मैदान से दुबक कर फूटते थे | ||
+ | और दौड़े खेतों से नदी तक | ||
+ | गुल्लकें तोड़ कर निकलते थे | ||
+ | हरी सड़कें देखने के लिए | ||
+ | कांटों पर चारा फंसा कर | ||
+ | मछलियों का शिकार किया | ||
+ | अटकी हुई पतंगों को लपकते थे | ||
+ | नंगे सिर घूमते हुए अपने आप | ||
+ | जंगली मेथी को चूसते हुए | ||
+ | मेरी चप्पलें घास के रंग में रंग जाया करती थीं | ||
+ | मैंने काली जमीन के विस्तारों को समझा | ||
+ | मधु-मक्खियों के पीले छतों को | ||
+ | हौले-हौले मंडराते उजले बादल बरसते थे | ||
+ | विशाल क्षितिजों के पीछे दृश्यों को खोलते हुए | ||
+ | चारों ओर से ढके मकानों को | ||
+ | घोड़ों की तरह हिनहिनाते बादल | ||
+ | और थके हुए सोते थे हम सूखी हुई घास पर | ||
+ | वर्षा के लंबे अंधेरों में। | ||
+ | चिन्ता थी मेरे लिए दुनिया में जिंदगी | ||
+ | झंझटे झेलता हुआ | ||
+ | जीवन सुलझता रहा अपने आप | ||
+ | बिना विशेष योगदान के | ||
+ | संशय नहीं था मुझे | ||
+ | संगत समाधानों के बारे में | ||
+ | जो उत्तर में दिये जा सकते थे सवालों को | ||
+ | लेकिन महसूस किया मैंने | ||
+ | जवाब देते हुये कि ये सवाल मेरे लिये हैं | ||
+ | इसलिए वहाँ जाऊँगा मैं | ||
+ | जहाँ से आरंभ हुआ हूँ। | ||
+ | आकस्मिक भाव था आत्मनिष्ठ | ||
+ | द्वन्द्व बन गया | ||
+ | जिसे मैंने शुरू किया इस यात्रा में | ||
+ | अपनी मातृभूमि के जंगलों में | ||
+ | लम्बी पगडंडियों-सड़कों के बीच | ||
+ | मैंने आदिम सरलता को समझने की | ||
+ | जटिलता को लिया। | ||
+ | दूल्हा और दुल्हन जैसी एकदेशीय संगति | ||
+ | इसलिए साथ था वहाँ युवापन और बचपन | ||
+ | एक-दूसरे की आँखों में देखने की कोशिश करता हुआ | ||
+ | असमानता में एक-दूसरे से बात की शुरूआत करना | ||
+ | पहले बचपन ने कहाμहैलो कैसे हो? | ||
+ | मैंने तुम्हें मुश्किल से पहिचाना | ||
+ | इसमें तुम्हारा कसूर है | ||
+ | जब भी तुम्हारे बारे में सोचा मैंने | ||
+ | मैंने सोचा तुम अब बदल गए होंगे | ||
+ | ‘सच कहूँगा’ तुम मेरी चिन्ता हो | ||
+ | आज भी तुम मेरे ऋणी हो | ||
+ | इसलिए युवक ने बचपन से मदद चाही | ||
+ | बचपन मुस्काया ओर वचनबद्ध हो गया | ||
+ | सहायता के लिए। | ||
+ | सतर्क होकर घूमते हुए | ||
+ | उन्होंने कहा नमस्ते | ||
+ | यात्रियों और मकानों को देखते हुए | ||
+ | मैं खुशी से कदम बढ़ाता रहा सहज-असहज | ||
+ | ज़ीमा जंकशन! | ||
+ | वह महत्वपूर्ण कस्बा | ||
+ | वस्तु-स्थितियों पर काम किया मैंने समय से पहले | ||
+ | इन विकल्पों के साथ कि | ||
+ | यदि यहाँ कुछ भी बेहतर नहीं था | ||
+ | तो इससे बुरा भी कुछ नहीं रहा होगा। | ||
+ | अनाज के भण्डार कैसे छोटे हो गये | ||
+ | जैसे कि दवाइयों की दुकान | ||
+ | जैसे पार्क | ||
+ | जब मैंने इसे छोड़ा था | ||
+ | तब से अब | ||
+ | जैसा कि छोटा हो गया हो समूचा संसार | ||
+ | और कठिन था शुरू में दूसरी चीजों के बीच | ||
+ | गलियों को देखना | ||
+ | जो सभी छोटी नहीं हुई थीं | ||
+ | लेकिन मैं विशाल परिदृश्य में था | ||
+ | कस्बे में घिसटता हुआ। | ||
+ | एक समय मैं यहाँ रहा एक अच्छे फ्लैट में | ||
+ | मुझे तुरंत मिलता रहा जो मैंने चाहा | ||
+ | चाय का कप और बिस्तर | ||
+ | घूम सकता था अंधेरे में और | ||
+ | हालात सजग हो सकते थे | ||
+ | मेरी लम्बी अनुपस्थिति में भी | ||
+ | लेकिन अब मैं टकरा गया हूँ ढंग से | ||
+ | इस्तेमाल की हुई हर चीज से | ||
+ | और ग़ैर की तरह उन्होंने मेरी आँखों को पकड़ा | ||
+ | ऊँची मुण्डेरों की अश्लील इबारतों के साथ | ||
+ | पियक्कड़ और कहवाघर की धंसी हुई दीवारें | ||
+ | दुकानों की क्यू में झगड़ती हुई औरतें | ||
+ | हाँ, यदि यह कोई और स्थान होता... | ||
+ | लेकिन यह जगह जहाँ मैं पैदा हुआ | ||
+ | जहाँ मैं घर आया शक्ति के लिए | ||
+ | और साहस के लिए | ||
+ | सच के लिए और सच के अच्छे परिणामों के लिये। | ||
+ | वहाँ ‘नगर परिषद’ में एक अभिशप्त ड्राइवर था | ||
+ | किसी के अट्टहास के नीचे लड़ते हुए दो मुर्गे थे | ||
+ | और निठल्ला ऊंघता हुआ दर्शकों को हुजूम | ||
+ | धूल में सुने हुए लम्बे कोरस | ||
+ | पैबंद लगे भिखारियों की बैसाखियाँ | ||
+ | छड़ी से बिल्ली को टोहता हुआ बच्चाμ | ||
+ | उद्देश्य के लिए सबसे सरल रास्ते नहीं गया मैं | ||
+ | लेकिन कुछ समय बाद | ||
+ | मुझे जल्दी रही | ||
+ | और यह जरूरी भी था | ||
+ | चेहरे की ताज़गी को बरक़रार रखने के लिये | ||
+ | जैसे ही मैं घर के करीब पहुँचा | ||
+ | गेट के नजदीक | ||
+ | लोहे का घुमावदार छल्ला। | ||
+ | आकस्मिक खुशियाँ | ||
+ | ‘आ गया’, ‘जेन्का आओ! और कुछ खाओ’ | ||
+ | पहले जैसी शुभकामनायें | ||
+ | चुम्बन और उलाहने | ||
+ | ‘टेलीग्राम नहीं भेज सकते थे तुम हमारे लिये’ | ||
+ | जब हम हल्का खाना बनाते होते | ||
+ | बार-बार गिनते होते, ‘कितने साल हो गये इसे’ | ||
+ | जैसे कि मैंने सोचा था सारे अनिश्चय ओझल थे | ||
+ | और चीजें शांत हो गई थी और चमकदार | ||
+ | चिन्तित मौसी अलीसा आगे कहती | ||
+ | सख्ती से कि मुझे नहाना चाहिये | ||
+ | जैसा वह जानती, जो तरीके उसे पसंद थेμउसने कहे | ||
+ | परातें और रसोई का कामकाज | ||
+ | कमरे में पहले से बिछी हुई मेज | ||
+ | और भूरे-नीले प्यार के रंग का सूट पहन कर | ||
+ | हिलती-डुलती हुई। | ||
+ | मैं कुएँ से पानी लेने जा चुका होता | ||
+ | एक सैनिक गीत गा कर कुएँ को गुंजाता हुआ। | ||
+ | कुएँ ने मेरे बचपन की सुगंधों को सहेजा | ||
+ | किनारों से छलकती हुई बाल्टी ऊपर आई | ||
+ | भीगी हुई जंजीर रोशनी में चमकी | ||
+ | यों मैं मास्को से आया था, मैं जरूरी मेहमान | ||
+ | छितरे-भीगे बालों और साफ कमीज पहना हुआ | ||
+ | उल्लसित संबंधों की भीड़ में बैठा हुआ | ||
+ | सवालों का केन्द्र, चश्मे हबड़-तबड़ | ||
+ | बहुत कमजोर हो गया मैं भी | ||
+ | महान साइबेरिया के खाने से | ||
+ | और अब ओझल हो गया उनकी सम्पन्नता के दृश्य में से | ||
+ | मौसी ने कहाμ‘एक खीरा और लो | ||
+ | वे तुम्हें क्या खिलाते रहे, तब मास्को में! | ||
+ | तुम कुछ भी नहीं खा रहे, बुरी बात है | ||
+ | लो, एक पूरी और लो | ||
+ | मेरे मामा ने कहाμ | ||
+ | ‘मैं मास्को वोद्का की उम्मीद कर | ||
+ | रहा था | ||
+ | जिसे तुम भी लेते रहे हो, कुछ कोशिश करो, | ||
+ | जाइये, जाइयेμयह तुम्हारे लिये अच्छा नहीं | ||
+ | इस उम्र में’μमैं उसी तरह कहता हूँ | ||
+ | तुम्हें पीना किसने सिखाया, देखो नीचे एक खाई है... | ||
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15:36, 6 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
हर तरफ सहजता थी कि जिंदगी बेहतर हो
सड़क पर आओ
झण्डे फहराओ
और क्रान्तिकारी गीता गाओ
फूलों को संभालते हुए
और सड़क साफ दिखाई दी
आगे ‘कम्यून’ तक।
वह कैसे समझ सकता था
उच्च सैनिक कमान के साथ
जीवन के निर्णायक दौर को
यह हमारे लिए बहुत आसान न था
कि कैसे समझा जाये जन-जीवन की जटिलताओं को।
एक सर्द सुबह भीगे हुए कदमों से
उसने अपने सामान को बोरे में भरा, बांधा
और घोड़े पर चढ़ते हुए स्कूली लड़की से कहाμ
‘अच्छाμफिर मिलेंगे’
और ओझल हो गया
रकाबों के साथ उछलता हुआ
उधर जहाँ से हवा आई थी
विस्फोटों से गंधाती हुई
और उसका घोड़ा चौकड़ियां भरता हुआ उसे
पूर्व की ओर ले गया
बेरबरी की अयालों को फटकारता हुआ।
इस तरह वर्ष बीतते गये
एक के बाद दूसरा
छोटे-से कस्बे में बढ़ता रहा मैं
सुनसान घरों
हरे-भरे मैदानों
और जंगलों के लिए मोह समेटता हुआ
बढ़ता रहा मैं
लुकते-छिपते नहीं पकड़ा गया
चौकीदार से
हम भूसे के ढेर से अनाज को बाहर निकालते थे
बन्दूकों के किये हुए छेदों से।
वह लड़ाई का समय था
हिटलर मास्को से दूर नहीं था
और हम बच्चे थे
बहुत कुछ को सहज ढंग से लेते हुए
कक्षा की धमकियों को झेलते हुये
और भूलते हुए
हम स्कूल के खेल के मैदान से दुबक कर फूटते थे
और दौड़े खेतों से नदी तक
गुल्लकें तोड़ कर निकलते थे
हरी सड़कें देखने के लिए
कांटों पर चारा फंसा कर
मछलियों का शिकार किया
अटकी हुई पतंगों को लपकते थे
नंगे सिर घूमते हुए अपने आप
जंगली मेथी को चूसते हुए
मेरी चप्पलें घास के रंग में रंग जाया करती थीं
मैंने काली जमीन के विस्तारों को समझा
मधु-मक्खियों के पीले छतों को
हौले-हौले मंडराते उजले बादल बरसते थे
विशाल क्षितिजों के पीछे दृश्यों को खोलते हुए
चारों ओर से ढके मकानों को
घोड़ों की तरह हिनहिनाते बादल
और थके हुए सोते थे हम सूखी हुई घास पर
वर्षा के लंबे अंधेरों में।
चिन्ता थी मेरे लिए दुनिया में जिंदगी
झंझटे झेलता हुआ
जीवन सुलझता रहा अपने आप
बिना विशेष योगदान के
संशय नहीं था मुझे
संगत समाधानों के बारे में
जो उत्तर में दिये जा सकते थे सवालों को
लेकिन महसूस किया मैंने
जवाब देते हुये कि ये सवाल मेरे लिये हैं
इसलिए वहाँ जाऊँगा मैं
जहाँ से आरंभ हुआ हूँ।
आकस्मिक भाव था आत्मनिष्ठ
द्वन्द्व बन गया
जिसे मैंने शुरू किया इस यात्रा में
अपनी मातृभूमि के जंगलों में
लम्बी पगडंडियों-सड़कों के बीच
मैंने आदिम सरलता को समझने की
जटिलता को लिया।
दूल्हा और दुल्हन जैसी एकदेशीय संगति
इसलिए साथ था वहाँ युवापन और बचपन
एक-दूसरे की आँखों में देखने की कोशिश करता हुआ
असमानता में एक-दूसरे से बात की शुरूआत करना
पहले बचपन ने कहाμहैलो कैसे हो?
मैंने तुम्हें मुश्किल से पहिचाना
इसमें तुम्हारा कसूर है
जब भी तुम्हारे बारे में सोचा मैंने
मैंने सोचा तुम अब बदल गए होंगे
‘सच कहूँगा’ तुम मेरी चिन्ता हो
आज भी तुम मेरे ऋणी हो
इसलिए युवक ने बचपन से मदद चाही
बचपन मुस्काया ओर वचनबद्ध हो गया
सहायता के लिए।
सतर्क होकर घूमते हुए
उन्होंने कहा नमस्ते
यात्रियों और मकानों को देखते हुए
मैं खुशी से कदम बढ़ाता रहा सहज-असहज
ज़ीमा जंकशन!
वह महत्वपूर्ण कस्बा
वस्तु-स्थितियों पर काम किया मैंने समय से पहले
इन विकल्पों के साथ कि
यदि यहाँ कुछ भी बेहतर नहीं था
तो इससे बुरा भी कुछ नहीं रहा होगा।
अनाज के भण्डार कैसे छोटे हो गये
जैसे कि दवाइयों की दुकान
जैसे पार्क
जब मैंने इसे छोड़ा था
तब से अब
जैसा कि छोटा हो गया हो समूचा संसार
और कठिन था शुरू में दूसरी चीजों के बीच
गलियों को देखना
जो सभी छोटी नहीं हुई थीं
लेकिन मैं विशाल परिदृश्य में था
कस्बे में घिसटता हुआ।
एक समय मैं यहाँ रहा एक अच्छे फ्लैट में
मुझे तुरंत मिलता रहा जो मैंने चाहा
चाय का कप और बिस्तर
घूम सकता था अंधेरे में और
हालात सजग हो सकते थे
मेरी लम्बी अनुपस्थिति में भी
लेकिन अब मैं टकरा गया हूँ ढंग से
इस्तेमाल की हुई हर चीज से
और ग़ैर की तरह उन्होंने मेरी आँखों को पकड़ा
ऊँची मुण्डेरों की अश्लील इबारतों के साथ
पियक्कड़ और कहवाघर की धंसी हुई दीवारें
दुकानों की क्यू में झगड़ती हुई औरतें
हाँ, यदि यह कोई और स्थान होता...
लेकिन यह जगह जहाँ मैं पैदा हुआ
जहाँ मैं घर आया शक्ति के लिए
और साहस के लिए
सच के लिए और सच के अच्छे परिणामों के लिये।
वहाँ ‘नगर परिषद’ में एक अभिशप्त ड्राइवर था
किसी के अट्टहास के नीचे लड़ते हुए दो मुर्गे थे
और निठल्ला ऊंघता हुआ दर्शकों को हुजूम
धूल में सुने हुए लम्बे कोरस
पैबंद लगे भिखारियों की बैसाखियाँ
छड़ी से बिल्ली को टोहता हुआ बच्चाμ
उद्देश्य के लिए सबसे सरल रास्ते नहीं गया मैं
लेकिन कुछ समय बाद
मुझे जल्दी रही
और यह जरूरी भी था
चेहरे की ताज़गी को बरक़रार रखने के लिये
जैसे ही मैं घर के करीब पहुँचा
गेट के नजदीक
लोहे का घुमावदार छल्ला।
आकस्मिक खुशियाँ
‘आ गया’, ‘जेन्का आओ! और कुछ खाओ’
पहले जैसी शुभकामनायें
चुम्बन और उलाहने
‘टेलीग्राम नहीं भेज सकते थे तुम हमारे लिये’
जब हम हल्का खाना बनाते होते
बार-बार गिनते होते, ‘कितने साल हो गये इसे’
जैसे कि मैंने सोचा था सारे अनिश्चय ओझल थे
और चीजें शांत हो गई थी और चमकदार
चिन्तित मौसी अलीसा आगे कहती
सख्ती से कि मुझे नहाना चाहिये
जैसा वह जानती, जो तरीके उसे पसंद थेμउसने कहे
परातें और रसोई का कामकाज
कमरे में पहले से बिछी हुई मेज
और भूरे-नीले प्यार के रंग का सूट पहन कर
हिलती-डुलती हुई।
मैं कुएँ से पानी लेने जा चुका होता
एक सैनिक गीत गा कर कुएँ को गुंजाता हुआ।
कुएँ ने मेरे बचपन की सुगंधों को सहेजा
किनारों से छलकती हुई बाल्टी ऊपर आई
भीगी हुई जंजीर रोशनी में चमकी
यों मैं मास्को से आया था, मैं जरूरी मेहमान
छितरे-भीगे बालों और साफ कमीज पहना हुआ
उल्लसित संबंधों की भीड़ में बैठा हुआ
सवालों का केन्द्र, चश्मे हबड़-तबड़
बहुत कमजोर हो गया मैं भी
महान साइबेरिया के खाने से
और अब ओझल हो गया उनकी सम्पन्नता के दृश्य में से
मौसी ने कहाμ‘एक खीरा और लो
वे तुम्हें क्या खिलाते रहे, तब मास्को में!
तुम कुछ भी नहीं खा रहे, बुरी बात है
लो, एक पूरी और लो
मेरे मामा ने कहाμ
‘मैं मास्को वोद्का की उम्मीद कर
रहा था
जिसे तुम भी लेते रहे हो, कुछ कोशिश करो,
जाइये, जाइयेμयह तुम्हारे लिये अच्छा नहीं
इस उम्र में’μमैं उसी तरह कहता हूँ
तुम्हें पीना किसने सिखाया, देखो नीचे एक खाई है...