"ज़ीमा जंकशन (भाग-7 / येव्गेनी येव्तुशेंको" के अवतरणों में अंतर
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− | + | ये लम्बी अजीबो-गरीब यात्राएँ | |
+ | और लकड़ी के खोखे, बाँज के बजते हुए गाछ | ||
+ | जहाँ-तहाँ मकान और उठते-गिरते शटर | ||
+ | चिल्लाती हुई छोटी नटखट लड़कियाँ | ||
+ | ‘क्या तुम भी’, प्यार में उसने पूछा, | ||
+ | ‘क्या तुम सोचते हो कि मुझे सन्देह है’। | ||
+ | समय बीतता रहा | ||
+ | रात और रात की नींद में | ||
+ | धूल जमती रही | ||
+ | अदृश्य या अचानक प्रकट हुए | ||
+ | इंजनों का हुजूम | ||
+ | रेल के इंजनों का दहकता हुआ कोयला | ||
+ | आधे दिखते हुए काले लोहे के ऊँचे-ऊँचे टाल | ||
+ | लगातार धुँआ छोड़ते | ||
+ | और शंटिंग करते हुए इंजन, | ||
+ | हाँफती या चीखती-चिल्लाती भीड़ | ||
+ | हथौड़ों की चमक | ||
+ | और नौजवानों की क्रियाशील भुजाएँ | ||
+ | हिलते-डुलते कन्धे, दाँत, काले-कलूटे चेहरे | ||
+ | पहियों के बीच तेज और क्रोधित | ||
+ | फुफकारती हुई भाप में डिब्बों को काटते हुए | ||
+ | ठण्डी जगमगाहट में रेल-पथ को पकड़ते हुए | ||
+ | अन्धेरे इंजनों को किनारे करते हुए | ||
+ | सहजता से साथी की ओर सिगरेट बढ़ाता हुआ | ||
+ | बगल में झण्डी दबाए सिगनलमैन | ||
+ | चिल्लाता था -- ‘फिर इर्कुतस्क से लेट है’ | ||
+ | ‘तुम यहाँ थे वास्का के तलाक पर !’ | ||
+ | खड़ा था मैं पूरी तरह जैसा कि अब | ||
+ | घूरते और याद करते हुए | ||
+ | तेल के धब्बेदार कोट पहिन कर | ||
+ | लापरवाह कदमों से पटरियों को पार करता | ||
+ | कि वह व्यक्ति जिसके हाथ में सूटकेस है | ||
+ | झूठमूठ सोचा मैंने कि जनपद छोड़ दिया होगा उसने | ||
+ | मैं उसके क़रीब गया और दबी आवाज़ में बोला, | ||
+ | ‘मैं समझता हूँ कि एक बार फिर समझना चाहिए हमें | ||
+ | एक-दूसरे को’ | ||
+ | मैंने उससे कहा | ||
+ | हम हँसे | ||
+ | वोफ़्का की तरह | ||
+ | (‘रॉबिन्सन क्रूसो’ सिर्फ उसी के पास नहीं है) | ||
+ | झूठ और झगड़े और मिलते-जुलते मजाक | ||
+ | वोफ़्का उसे रहना चाहिए | ||
+ | क्या तुम्हें याद है पेत्का का प्रतिकार | ||
+ | और उस अस्पताल में गाते हुए सैनिक | ||
+ | और उस छोटी-सी लड़की से शादी कर रहे थे तुम | ||
+ | मैं सोचता हूँ -- | ||
+ | समय-समय पर बात करनी चाहिए हमें | ||
+ | चीज़ों के बारे में | ||
+ | ख़ुशियों और दुखों के बारे में एक-दूसरे से | ||
+ | ‘तुम थक गए वोफ़्का ! | ||
+ | जल्दी लौट आना चाहिए तुम्हें काम से | ||
+ | ओह, यह सब छोड़ो नदी तक आओ | ||
+ | रात की छायाओं से घिरा है रास्ता | ||
+ | वनस्पतियों की छाया में | ||
+ | जूतों और बूटों और नंगे पैरों के निशान | ||
+ | सुर्ख फूलों के झाड़-झंखाड़ | ||
+ | नए और कोमल पत्ते’ | ||
+ | निश्चिन्त और सहज ढंग से कह रहा था मैं | ||
+ | आगे बढ़ते हुए | ||
+ | उसने सुना चुपचाप और जवाब में | ||
+ | कोई जवाब नहीं दिया | ||
+ | हम दोनों ढालू पगडण्डियों पर थे | ||
+ | ऊँची और घनी घासों के बीहड़ | ||
+ | भीगी हुई लकड़ियाँ | ||
+ | बालू और मछलियों की गन्ध | ||
+ | नदी बाँधते मछुआरे | ||
+ | आग और धुआँ | ||
+ | हम नदी के साँवले दयारों में उतरे | ||
+ | वह चिल्लाया कुछ कहते हुए | ||
+ | और यकायक भूल गया बिना वजह के | ||
+ | आग्रह और याद के विरोध में | ||
+ | हम नदी किनारे चाँदनी में बैठे | ||
+ | विचारों में घूमते हुए | ||
+ | चट्टानों से टकराते पानी की तरह । | ||
+ | कहीं हमारे आस-पास खेतों में | ||
+ | घोड़े घूम रहे थे धूल में | ||
+ | मैंने सोचा मेरा विचार देखा जा रहा है दूर से | ||
+ | अपराध-बोध ! | ||
+ | ‘अकेले नहीं हो तुम’ वोफ़्का ने कहा, | ||
+ | ‘यह समय है विचारशील लोगों के लिए’ | ||
+ | अपना सलवटें पड़ा कोट पहिनो | ||
+ | इस तरह न बैठो | ||
+ | आखिर कैसे आदमी हो तुम | ||
+ | चीजों की पहचान हो गई है | ||
+ | समय है समय की सीमाओं में | ||
+ | हमें केवल सोचना होगा । | ||
+ | ‘जल्दी है क्या’ | ||
+ | वह मैदान से उठा | ||
+ | हाँ, कुछ है करने के लिए | ||
+ | मुझे घर जाना है | ||
+ | ‘सुबह के आठ बज रहे हैं मेरे लिए इस समय’ | ||
+ | ऐसा हुआ | ||
+ | हर चीज़ ताज़ा दिखाई दी | ||
+ | रात ख़त्म हुई कुछ न होने के लिए | ||
+ | थोड़ा सर्दी थी | ||
+ | लोग रंग में थे | ||
+ | बारिश की हल्की फुहारों में | ||
+ | वह और मैं साथ घूमते रहे अकेले | ||
+ | कहीं आत्मसन्तुष्ट पनक्रातफ़ | ||
+ | घूम रहा था जीप में | ||
+ | शान्त मोटा अध्यक्ष | ||
+ | अपनी छड़ी के साथ प्रसन्न | ||
+ | ओस की बिखरी हुई बड़ी बूँदों के बीच | ||
+ | नंगे पाँव : ज़िद्दी मूर्ख लड़का | ||
+ | विशेष कुछ न था | ||
+ | न ठण्डा, न गरम | ||
+ | दूसरे दिनों जैसा दिन था | ||
+ | लेकिन आसमान में कबूतरों का झुण्ड ख़ुश था | ||
+ | मैंने नौजवान दूर जाता हुआ देखा | ||
+ | मैंने महसूस किया दर्द को | ||
+ | साफ-सुथरा दर्द | ||
+ | शायद मैंने अनुभव हासिल किया | ||
+ | और जानना चाहता हूँ जो नहीं जाना अब तक | ||
+ | दोस्त को वोद्का पिलाई मैंने | ||
+ | और ज़ीमा जंकशन से होते हुए | ||
+ | एक बार फिर दौड़ने लगा | ||
+ | यह भी दूसरे दिनों जैसा दिन था | ||
+ | मैदान की हरे रंग की उदासियों के ख़िलाफ़ | ||
+ | फड़फड़ा रही थी पेड़ों की प्रतिभा | ||
+ | काँप रही थी | ||
+ | कुछ लड़के पत्थर फेंक रहे थे दीवार पर | ||
+ | मोटर गाड़ियों का रेला खिसक रहा था | ||
+ | गायों और फलों के आसपास | ||
+ | बाज़ार में औरतें थीं | ||
+ | दुखी और स्वच्छन्द | ||
+ | मैं आख़िरी मकान से गुज़रा | ||
+ | सूरज चढ़ गया था पहाड़ की चोटी पर | ||
+ | देखता हुआ | ||
+ | पार स्टेशन की इमारतों | ||
+ | खेतों में बने मकानों | ||
+ | भूसे के ढेरों को । | ||
+ | ‘ज़ीमा जंकशन’ ने आवाज़ दी मुझे, | ||
+ | कहा -- | ||
+ | ‘मैं चुपचाप रहता हूँ | ||
+ | चटकने वाली गुठलियों की तरह | ||
+ | सौम्यता से इंजनों का धुँआ छोड़ता हुआ | ||
+ | लेकिन दूर नहीं हूँ समय की प्रक्रियाओं से | ||
+ | यह समय मेरे प्रिय विचार | ||
+ | चिन्तित न रहो | ||
+ | जिज्ञासा, अन्तर्विरोध और सृजन में | ||
+ | अकेले नहीं हो तुम | ||
+ | चिन्ता न करो | ||
+ | ज्वलन्त सवालों का जवाब यदि तुम्हारे पास नहीं है | ||
+ | इस समय | ||
+ | कोशिश करो, सोचो, सुनो, | ||
+ | खोजो संसार में घूमते हुए | ||
+ | ये सच है कि | ||
+ | बौद्धिक सहजता के बिना | ||
+ | ख़ुशियों का अस्तित्व नहीं | ||
+ | शान्त गर्व से घूमो | ||
+ | बढ़ते हुए | ||
+ | व्यापक और सचेत दृष्टि से | ||
+ | बारिश की बूँदों को सिर से झाड़ते हुए | ||
+ | चीड़ों की पैनी पत्तियों को | ||
+ | आँखों की चमक | ||
+ | जो आँसुओं और बिजलियों की धमक के साथ है | ||
+ | प्यार करो लोगों को | ||
+ | रुचि लो, इसे अपने विवेचन में | ||
+ | याद रखना मुझे | ||
+ | देखता रहूँगा मैं | ||
+ | तुम लौट कर आ सकते हो मेरे पास | ||
+ | अब जाओ’ | ||
+ | मैं गया और अभी तक जा रहा हूँ । | ||
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16:13, 6 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
ये लम्बी अजीबो-गरीब यात्राएँ
और लकड़ी के खोखे, बाँज के बजते हुए गाछ
जहाँ-तहाँ मकान और उठते-गिरते शटर
चिल्लाती हुई छोटी नटखट लड़कियाँ
‘क्या तुम भी’, प्यार में उसने पूछा,
‘क्या तुम सोचते हो कि मुझे सन्देह है’।
समय बीतता रहा
रात और रात की नींद में
धूल जमती रही
अदृश्य या अचानक प्रकट हुए
इंजनों का हुजूम
रेल के इंजनों का दहकता हुआ कोयला
आधे दिखते हुए काले लोहे के ऊँचे-ऊँचे टाल
लगातार धुँआ छोड़ते
और शंटिंग करते हुए इंजन,
हाँफती या चीखती-चिल्लाती भीड़
हथौड़ों की चमक
और नौजवानों की क्रियाशील भुजाएँ
हिलते-डुलते कन्धे, दाँत, काले-कलूटे चेहरे
पहियों के बीच तेज और क्रोधित
फुफकारती हुई भाप में डिब्बों को काटते हुए
ठण्डी जगमगाहट में रेल-पथ को पकड़ते हुए
अन्धेरे इंजनों को किनारे करते हुए
सहजता से साथी की ओर सिगरेट बढ़ाता हुआ
बगल में झण्डी दबाए सिगनलमैन
चिल्लाता था -- ‘फिर इर्कुतस्क से लेट है’
‘तुम यहाँ थे वास्का के तलाक पर !’
खड़ा था मैं पूरी तरह जैसा कि अब
घूरते और याद करते हुए
तेल के धब्बेदार कोट पहिन कर
लापरवाह कदमों से पटरियों को पार करता
कि वह व्यक्ति जिसके हाथ में सूटकेस है
झूठमूठ सोचा मैंने कि जनपद छोड़ दिया होगा उसने
मैं उसके क़रीब गया और दबी आवाज़ में बोला,
‘मैं समझता हूँ कि एक बार फिर समझना चाहिए हमें
एक-दूसरे को’
मैंने उससे कहा
हम हँसे
वोफ़्का की तरह
(‘रॉबिन्सन क्रूसो’ सिर्फ उसी के पास नहीं है)
झूठ और झगड़े और मिलते-जुलते मजाक
वोफ़्का उसे रहना चाहिए
क्या तुम्हें याद है पेत्का का प्रतिकार
और उस अस्पताल में गाते हुए सैनिक
और उस छोटी-सी लड़की से शादी कर रहे थे तुम
मैं सोचता हूँ --
समय-समय पर बात करनी चाहिए हमें
चीज़ों के बारे में
ख़ुशियों और दुखों के बारे में एक-दूसरे से
‘तुम थक गए वोफ़्का !
जल्दी लौट आना चाहिए तुम्हें काम से
ओह, यह सब छोड़ो नदी तक आओ
रात की छायाओं से घिरा है रास्ता
वनस्पतियों की छाया में
जूतों और बूटों और नंगे पैरों के निशान
सुर्ख फूलों के झाड़-झंखाड़
नए और कोमल पत्ते’
निश्चिन्त और सहज ढंग से कह रहा था मैं
आगे बढ़ते हुए
उसने सुना चुपचाप और जवाब में
कोई जवाब नहीं दिया
हम दोनों ढालू पगडण्डियों पर थे
ऊँची और घनी घासों के बीहड़
भीगी हुई लकड़ियाँ
बालू और मछलियों की गन्ध
नदी बाँधते मछुआरे
आग और धुआँ
हम नदी के साँवले दयारों में उतरे
वह चिल्लाया कुछ कहते हुए
और यकायक भूल गया बिना वजह के
आग्रह और याद के विरोध में
हम नदी किनारे चाँदनी में बैठे
विचारों में घूमते हुए
चट्टानों से टकराते पानी की तरह ।
कहीं हमारे आस-पास खेतों में
घोड़े घूम रहे थे धूल में
मैंने सोचा मेरा विचार देखा जा रहा है दूर से
अपराध-बोध !
‘अकेले नहीं हो तुम’ वोफ़्का ने कहा,
‘यह समय है विचारशील लोगों के लिए’
अपना सलवटें पड़ा कोट पहिनो
इस तरह न बैठो
आखिर कैसे आदमी हो तुम
चीजों की पहचान हो गई है
समय है समय की सीमाओं में
हमें केवल सोचना होगा ।
‘जल्दी है क्या’
वह मैदान से उठा
हाँ, कुछ है करने के लिए
मुझे घर जाना है
‘सुबह के आठ बज रहे हैं मेरे लिए इस समय’
ऐसा हुआ
हर चीज़ ताज़ा दिखाई दी
रात ख़त्म हुई कुछ न होने के लिए
थोड़ा सर्दी थी
लोग रंग में थे
बारिश की हल्की फुहारों में
वह और मैं साथ घूमते रहे अकेले
कहीं आत्मसन्तुष्ट पनक्रातफ़
घूम रहा था जीप में
शान्त मोटा अध्यक्ष
अपनी छड़ी के साथ प्रसन्न
ओस की बिखरी हुई बड़ी बूँदों के बीच
नंगे पाँव : ज़िद्दी मूर्ख लड़का
विशेष कुछ न था
न ठण्डा, न गरम
दूसरे दिनों जैसा दिन था
लेकिन आसमान में कबूतरों का झुण्ड ख़ुश था
मैंने नौजवान दूर जाता हुआ देखा
मैंने महसूस किया दर्द को
साफ-सुथरा दर्द
शायद मैंने अनुभव हासिल किया
और जानना चाहता हूँ जो नहीं जाना अब तक
दोस्त को वोद्का पिलाई मैंने
और ज़ीमा जंकशन से होते हुए
एक बार फिर दौड़ने लगा
यह भी दूसरे दिनों जैसा दिन था
मैदान की हरे रंग की उदासियों के ख़िलाफ़
फड़फड़ा रही थी पेड़ों की प्रतिभा
काँप रही थी
कुछ लड़के पत्थर फेंक रहे थे दीवार पर
मोटर गाड़ियों का रेला खिसक रहा था
गायों और फलों के आसपास
बाज़ार में औरतें थीं
दुखी और स्वच्छन्द
मैं आख़िरी मकान से गुज़रा
सूरज चढ़ गया था पहाड़ की चोटी पर
देखता हुआ
पार स्टेशन की इमारतों
खेतों में बने मकानों
भूसे के ढेरों को ।
‘ज़ीमा जंकशन’ ने आवाज़ दी मुझे,
कहा --
‘मैं चुपचाप रहता हूँ
चटकने वाली गुठलियों की तरह
सौम्यता से इंजनों का धुँआ छोड़ता हुआ
लेकिन दूर नहीं हूँ समय की प्रक्रियाओं से
यह समय मेरे प्रिय विचार
चिन्तित न रहो
जिज्ञासा, अन्तर्विरोध और सृजन में
अकेले नहीं हो तुम
चिन्ता न करो
ज्वलन्त सवालों का जवाब यदि तुम्हारे पास नहीं है
इस समय
कोशिश करो, सोचो, सुनो,
खोजो संसार में घूमते हुए
ये सच है कि
बौद्धिक सहजता के बिना
ख़ुशियों का अस्तित्व नहीं
शान्त गर्व से घूमो
बढ़ते हुए
व्यापक और सचेत दृष्टि से
बारिश की बूँदों को सिर से झाड़ते हुए
चीड़ों की पैनी पत्तियों को
आँखों की चमक
जो आँसुओं और बिजलियों की धमक के साथ है
प्यार करो लोगों को
रुचि लो, इसे अपने विवेचन में
याद रखना मुझे
देखता रहूँगा मैं
तुम लौट कर आ सकते हो मेरे पास
अब जाओ’
मैं गया और अभी तक जा रहा हूँ ।