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रात के घुप अन्धेरे में जो एकाएक जागता है<br>और रात दूर सागर की घुरघुराहट-जैसी चुप<br>
सुनता है<br>
वह निपट अकेला होता है।<br>
अन्धकार में जागनेवाले सभी अकेले होते हैं।<br><br>
 
पर जो यों ही सहमी हुई रात में<br>
थके सहमे सियार की हकलाती हुआँ-हुआँ-सी<br>
तब वह अकेले के साथ<br>
मामूली भी हो जाता है।<br><br>
 
घुप रात के<br>
चुप सन्नाटे में<br>
हर आदमी<br>
अपनी नियति पहचानता है।<br><br>
 
वही हम हैं:<br>
घुप अन्धेरे में<br>
अकेले<br>
और मामूली।<br><br>
 
न होते अकेले<br>
तो डरते।<br>
अकेलेपन और मामूलियत की सैकड़ों सदियों से जानता है:<br>
कि वह एक<br>
बच जाता है;<br>
वही<br>
अनश्वर है।<br><br>
 
मामूली और अकेला:<br>
उस घुप अंधेरे में<br>
मेर भीतर से सैकड़ों घुसपैठिए<br>
आग लगाते हुए गुज़र जाते हैं--हैं—<br>
पर उसी में<br>
मैं उन सब की ज़िन्दगी जीता हूँ<br>
पथरा गए,<br>
जो खेत रहे,<br>
जिन्होंने वीर कर्मों के लिए सम्मान पाया--पाया—<br>
और मैं उन सब की भी ज़िन्दगी जीता हूँ<br>
जिन के नामहीन, स्वरहीन, अप्रत्याशित, अतर्कित भी<br>
अपने जाज्वल्यमान कर्मों का<br>
अवसर दिया।<br><br>
 
और यों<br>
इन नामहीनों की ज़िन्दगी जीता हुआ मैं<br>
वहीं लौट आता हूँ जहाँ मैं होता हूँ जब मैं जागता हूँ--हूँ—<br>
मामूली और अकेला<br>
मैं अंधेरे के घुप में एक प्रकाश से घिर जाता हूँ--हूँ—<br>
मैं, जो नींव की ईंट हूँ:<br>
सुरसुराते चुप में एक अलौकिक संगीत से गूंज<br>
:::उठता हूँ<br>
मैं जो सधा हुआ तार हूँ:<br>
मैं, मामूली, अकेला, दुर्दम, अनश्वर--अनश्वर—<br>
मैं, जो हम सब हूँ।<br><br>
 
तब वह ठिठुरे सियार की रिरियाती पुकार<br>
एक स्पष्ट, तेज़, आश्वस्त गूंजती और गुंजाती हुई<br>
जिन से हम जीते हैं<br>
जिन से हमारा देश पलता है<br>
जिन से हमारा राष्ट्र रूप लेता है--है—<br>वयस्क, स्वाधीन, सबल, प्रतिभा-मण्डित, अमर--अमर—<br>और हमारी तरह अकेला--क्योंकि अकेला—क्योंकि अद्वितीय...<br><br> 
इस से क्या <br>
कि सवेरे हम में से एक<br>
साइकल ले कर दिन-भर के लिए क़लम घिसने जाएगा<br>
और एक दूसरा झाबा ले कर तरकारी बेचने<br>
और एक तीसरा झल्ली लेकर ढुलाई करने--करने—<br>मिट्टी की, या दूसरों के ख़रीदे फल-मेवे और कपड़ों की--की—<br>
और एक चौथा मोटर में बैठता हुआ चपरासी से फाइलें<br>
:::उठवाएगा--उठवाएगा—<br>
एक कोई बीमार बच्चे को सहलाता हुआ आश्वासन<br>
:::देगा--देगा—'देखो,<br>सका तो ज़रूर ले आऊँगा'--<br>
और एक कोई आश्वासन की असारता जानता हुआ भी<br>
:::मुसकरा कर कहेगा--कहेगा—<br>
'हाँ, ज़रूर, भूलना मत!'<br>
इस से क्या कि एक की कमर झुकी होगी<br>
और एक उमंग से गा रहा होगा--होगा—'मोसे गंगा के पार...'<br>और एक के चश्मे का काँच टूटा होगा--होगा—<br>
और एक के बस्ते में स्कूल की किताबें आधी से<br>
:::अधिक फटी हुई होंगी?<br>
एक के हाथ की जेब में सिगरेट की महकती डिबिया<br>
:::और लासे की मीठी टिकियाँ<br>
जिसे जिस से वह दिन-भर मुँह से लचकीले बुलबुले निकाला करेगा<br>
::और फिर वापस खींच लिया करेगा,<br>
एक ने गालों से गए दिन की नक़ली रंगत नए दिन की <br>
जिस में हम सब<br>
हर अकेली रात के अंधेरे में<br>
एक सम्बन्ध और सामर्थ्य और गौरव की लड़ी में बंधते हैं--हैं—<br>हम, हम, हम, हम भारतवासी?<br><br><br>  
<span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span>
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