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"स्मृतियों के झरोखे : ऊटी, नीलगिरि तथा भक्तिभाव की जन्मभूमि / संतलाल करुण" के अवतरणों में अंतर

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हर साल गर्मियों के दिन आते हैं, तो मन-मस्तिष्क में मेरे ऊटी-प्रवास (28 अक्टूबर 1987 से 20 जुलाई 1996 तक) की पिरोजे-सी झलकती हरी-नीली स्मृतियाँ कौंध जाती हैं। उसी सुन्दर हरित-नील कौंध को मैं आज भी अपनी स्मृतियों में अनुभुव कर रहा हूँ – वही ऊटी ! वही नीलगिरि ! दक्षिण भारत का वही दर्शनीय पर्वत ! वही सैलानी ऊँचाइयाँ ! वही हरित नीलिमा की चादर से आवृत दूर-दूर तक फैला विशाल प्राकृतिक मरकत मणि ! श्रीमती बंग महिला ने उसी ‘नीलगिरि’ पर अनुवादित निबंध “नीलगिरि पर्वत के निवासी टोडा लोग” सन् 1904 में ‘सरस्वती’-जैसी तत्कालीन प्रसिद्ध पत्रिका में प्रकाशित कराया था (देखिए, ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’, वर्ष 90, बंग महिला स्मृति अंक, पृ० – 130)। नीलगिरि को नए ढंग से आबाद करने-करानेवालों में पहला कद्दावर नाम जॉन सलवन का है, जो ‘कोयम्बटूर’ जिले का कलेक्टर था और जिसने अंग्रेजों के लिए उपयुक्त पहाड़ी आवासीय क्षेत्र की खोज सन् 1822 में की थी, जो ‘उत्कलमंद’ (‘तोडा भाषा’), ‘उदगमण्डलम’ (तमिल), उटकमण्ड (अंग्रेजी) के रूप में जाना जाता है और वही कालान्तर में संक्षिप्तता की अपेक्षा के कारण ‘ऊटी’ हो गया (देखिए, ‘नीलगिरि’ पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक – ‘द निलगिरिस’- पॉल होकिंग्स)। सन् 1822 से पहले ‘नीलगिरि’ पर तोडा आदि पर्वतीय आदिवासी रहते थे, जो पर्वत से नीचे नहीं उतरते थे और जिनकी नस्ल नीग्रो-जैसे पश्चिमी आदिवासियों से काफी मिलती-जुलती बताई जाती है। उनके वंशज आज भी हैं और आधुनिकता के उपरांत आज भी पुरानी पीढ़ी के पर्वतवासी भाषा, पहनावा, रहन-सहन, खान-पान आदि कई दृष्टियों से अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं।
नीलगिरि–प्रवास से संबंधित अनेक स्मृतियाँ हैं, जिनमे से कुछ बाल कविताएँ भी हैं, जिन्हें वहाँ की भोली सुन्दरता ने मुझसे बरबस रेखांकित करवा लिया था। उनमे से तीन – ‘ऊटी’, ‘नीलगिरि’ और ‘भक्तिभाव की जन्मभूमि’ शीर्षक कविताएँ अपेक्षित टिप्पणी के साथ यहाँ बाल पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं –

                ऊटी

            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            आँखें तेरी नीली क्यों
            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            हरी चुनरिया तेरी क्यों।

            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            सलवन ने यूँ पूछा क्यों
            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            नेहरु का दिल जीता क्यों।

            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            ठंडाई पी माती क्यों
            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            सूरज से शरमाती क्यों।

            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            चाँद-सितारे डरते क्यों
            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            बादल तुझ पर मरते क्यों।

            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            पर्वत की तू रानी ज्यों
            ऊटी, ऊटी अरे बधूटी
            पर्वत के हम वासी त्यों।

टिप्पणी –
1- जॉन सलवन -- कोयम्बटूर’ जिले का तत्कालीन कलेक्टर, जिसने सन् 1822 में ‘ऊटी’ की खोज की।
2- पंडित नेहरु ने अपनी ऊटी-यात्रा के समय ऊटी को ‘पहाड़ों की रानी’ कहा था।


          नीलगिरि

रानी जहाँ पहाड़ों की रहती ज्यों नीलपरी।
कहे हिमालय विन्ध्याचल से वह है नीलगिरी।

उत्तर में मैसूर सुहाना
पालघाट दक्षिण सिरहाना
पूरब दिशा इरोड सँभाले
कालीकट पश्चिम का थाना
आँखे नीली, हरी ओढ़नी, दक्षिण की सुन्दरी।

मनहर उटकमंड-कुन्नूर
कोतागिरि-गुडलूर का सूबा
ऊँचा बहुत है डोड्डाबेट्टा
खिले कुरुंजी फूल अजूबा
नील नयन झाँकें पर्वत से, लहराती चुनरी।

नीलम-पन्नों की चित्रकला
घाटी-पहाड़ प्यारे-प्यारे
बागान चाय के हरे-भरे
सीढ़ी-जैसे लगते न्यारे
हम बर्फानी चादर में वह मेघ के घर ठहरी।

बड़गा, कोता, तोडा, कुरुंबा
इरुला, मूला आदिम वासी
पैकारा, मोयार, भवानी
कुण्ढ, बेपोर नदियाँ व्यापी
गंगा-यमुना पहुँच न पातीं ऐसी गिरि-नगरी।


शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
1- ऊटी, कुन्नूर, कोतागिरि, गुडलूर -- ‘नीलगिरि’ जिले के चार प्रशासनिक-तहसीली मुख्यालय अथवा प्रमुख पहाड़ी शहर।
2- डोड्डाबेट्टा – ‘डोड्डाबेट्टा’ का अर्थ है ‘बड़ा’ अर्थात नीलगिरि का सबसे ऊँचा पर्वत (समुद्रतल से 8640 फुट)।
4- कुरुंजी – एक अनोखा पर्वतीय पौधा, जिसमें 12 या 24 या 36 वर्षों बाद फूल आते हैं।
5- नीलगिरि की आदिवासी जातियाँ - तोडा, कोता, कुरुंबा, इरुला, मूला और बड़गा हैं।
6- नीलगिरि की नदियाँ - पैकारा, मोयार, भवानी, कुण्ढ और बेपोर।


       भक्ति भाव की जन्मभूमि

भारत के दक्षिणी अंग का अपना रूप निराला है
तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ की भाषामाला है।

तिरुपति, पालघाट, गुलबर्गा, खम्मम, नेल्लोर कहीं है
यहाँ-वहाँ घर-आँगन में कोलम एका जोड़ रही है।

इडली, डोसा, साँभर, उपमा, अपड़म-पपड़म खाते हैं
पोंगल-ओणम धूम-धाम से सज-धज खूब मनाते हैं।

कहीं कथकली-कुचीपुड़ी, कहीं यक्षगान रंग लाता है
कहीं पे भरत-नाट्यम अपने ढंग से रंग जमाता है।

कहीं कृष्णा, कहीं कावेरी, गोदावरि इठलाती है
कहीं कोवलम ध्यान खींचता, तुंगभद्रा मन-भाती है।

कहीं पे कांजीपुरम साड़ियाँ, कहीं बीदरी सुन्दर है
कहीं शांतिमय अरविन्दाश्रम, कहीं अय्यप्पा मंदिर है।

भक्तिभाव की जन्मभूमि माँ, तुझको शीश झुकाते हैं
ममता के दक्षिण पहलू में, संतान सरिस सुख पाते हैं।

शब्दार्थ एवं टिप्पणी –
1. कोलम- तमिलनाडु में घर-घर में सजनेवाली रंगोली।
2. पोंगल- तमिलनाडु का फसली त्यौहार।
3. ओणम – केरल में राजा महाबली की स्मृति में मनाया जानेवाला त्यौहार।
4. कुचीपुड़ी- आंध्र का नृत्य।
5. कथकली- केरल का मुखौटा लगाकर किया जानेवाला नृत्य।
6. यक्षगान- कर्नाकट का लोकनृत्य।
7. कोवलम- केरल का प्रसिद्ध सुन्दर सागर-तट।
8. बीदरी- आंध्र की नक्काशी।
9. अय्यप्पा-मंदिर- केरल में सबरीमलय स्थित प्रसिद्ध मंदिर।